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________________ ११२ भावकाचार-संग्रह न कुर्याज्जातिषु प्रायः कलहादिनिरन्तरम् । मिलता एव वर्षन्ते कमलिन्य इवाम्भसि ॥३९९ दारिद्रचोपवृतं मित्रं नरः सामिक सुधीः । चेयात् ज्ञानिगणैर्जामिमनपत्यां च पूजयेत् ॥४०० मारण्यायां न वस्तूनां विक्रयाय क्रयाय च । कुलानुचितकार्याय नो गच्छेद गौरवप्रियः ॥४०१ स्वाङ्गवाचं तृणच्छेद्यं व्यर्थ भूमिविलेखनम् । नव कुर्यान्नरो दन्त-नखराणां च घर्षणम् ॥४०२ प्रवर्तमानमुन्मार्गे स्वं स्वेनैव निवारयेत् । किमम्भोनिधिरुद्वेलः स्वस्मादन्येन वार्यते ॥४०३ सन्मानसहितं दानमौचित्येनोचितं वचः । नयेन चयं ( भाष्यं ) च त्रिजगवश्यकृत् त्रयम् ॥४०४ व्यर्थादधिकनेपथ्यो वेषहोनोऽधिकं धनी। अशक्तो वैरकृच्छक्तमहद्भिरुपहस्यते ।।४०५ चौर्याधैबंद्धवित्ताशः सदुपायेषु संशयो । सत्यां शक्ती निरुद्योगो नाप्नोति नरः श्रियम् ॥४०६ फलकाले कतालस्यो निष्फले विहितोद्यमः । न शङ्कः शत्रुसंज्ञेऽपि न नरश्चिरमेधते ॥४०७ दम्भः संरम्भिाह्यो दम्भमुक्तेष्वनादरी । शठस्त्रीवाचि विश्वासी विनश्यति न संशयः ४०८ ईर्ष्यालुः कुलटा-कामी निर्धनो गणिकाप्रियः । स्थविरश्च विवाहेच्छुरुपहास्यास्पदो नृणाम् ॥४०९ आदरसे उनकी एकता ही करनी चाहिए। जो पुरुष अपनी जातिके कष्टकी उपेक्षा करता है उस मानी पुरुषके मानकी हानि होती है और उस दोषसे उसका अपयश भी होता है ॥३९८।। अपनी जातिवालोंपर निरन्तर कलह आदि करना प्रायः अच्छा नहीं होता है । देखो कलिनियाँ मिलकरके ही जलमें बढ़ती हैं ॥३९९।। दरिद्रतासे पोडित साधर्मी मित्रकी बुद्धिमान् पुरुष सदा ही उन्नति करे । तथा जो पूज्य स्त्री सन्तान-रहित हो, उसका ज्ञानी जनोंके साथ सदा पूजा-सत्कार करे ।।४००॥ जिसे अपना गौरव प्रिय है, वह गली-कूचेमें वस्तुओंके बेंचने या खरीदनेके लिए तथा कुलके अयोग्य कार्य करनेके लिए कभी न जावे ॥४०१।। मनुष्यको अपने शरीरके अंगोंका बजाना, तृणोंका छेदना, व्यर्थ भूमिका खोदना, दांतों और नखोंका घिसना ये कार्य नहीं करना चाहिए ॥४०२।। कुमार्गमें प्रवर्तमान अपने आपको स्वयं ही निवारण करे । बेलाका उल्लंघन करता हुआ समुद्र क्या अपनेसे भिन्न दूसरेके द्वारा निवारण किया जाता है ? कभी नहीं ॥४०३।। __ सन्मानके साथ दान देना, समुचितपनेके साथ उचित वचन बोलना और सुनीतिके साथ आचरण और संभाषण करना, ये तीनों कार्य तीनों जगत्को वशमें करनेवाले होते हैं ॥४०४॥ प्रयोजनसे अधिक वेष धारण करनेवाला धनी होते हुए भी अधिक होन वेष धारण करनेवाला तथा असमर्थ होते हुए भी समर्थ पुरुषोंके साथ वैर करनेवाला पुरुष महाजनोंके द्वारा हंसीका पात्र होता है ।।४०५।। चोरी आदि करके धनकी आशा रखनेवाला, उत्तम उपायोंमें संशय रखनेवाला और शक्ति होनेपर भी उद्योग नहीं करनेवाला मनुष्य लक्ष्मीको प्राप्त नहीं कर पाता है ।।४०६॥ फल प्राप्तिके कालमें आलस करनेवाला, निष्फल कार्यमें उद्यम करनेवाला और शत्रु-संज्ञावाले पुरुषमें शंका नहीं रखनेवाला पुरुष चिरकालतक वृद्धिको प्राप्त नहीं होता है ।।४०७।। उत्तम कार्य करनेवालोंके साथ दम्भ करनेवाला, व्यर्थके समारम्भ करनेवाला, उनको ग्रहण करने योग्य माननेवाला, दम्भ-रहित पुरुषोंमें अनादर करनेवाला, मूों और स्त्रियोंके वचनोंमें विश्वास करनेवाला मनुष्य विनागको प्राप्त होता है, इसमें कोई संशय नहीं है ।।४०८।। दूसरोंसे ईष्या करनेवाला, कुलटा-व्यभिचारिणी स्त्रियोंके साथ काम-सेवनका इच्छुक, निर्धन हो करके भी वेश्याओंके साथ प्यार करनेवाला और वृद्ध हो करके भी विवाह करनेकी इच्छा रखने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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