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________________ ११० श्रावकाचार-संग्रह विश्वासो नैव कस्यापि कार्यो धेषां विशेषतः । ज्ञानिप्ररूपिताशेषधर्मविच्छेदमिच्छताम् ॥३७७ स्वमातुरुदरोत्पन्नरौद्रातध्यानधारिणाम् । पाखण्डिनां तथा क्रूरासत्यप्रत्यन्तवासिनाम् ॥३७८ धूर्तानां प्रागरुद्धानां बालानां योषितांस्तथा । स्वर्णकार-जलाग्नीनां प्रभूणां कूटभाषिणाम् ॥३७९ नीचानामलसानां च पराक्रमवतां तथा। कृतघ्नानां च चौराणां नास्तिकानां तु जातुचित् ॥३८० ___(चतुभिः कलापकम्) किं कुलं किंश्रुतं कि वा कर्म कौ च व्ययागमौ। का वाक्-शक्तिः किमयं क्लेशः किं च बुद्धिविजृम्भितम् ॥३८१ का शक्तिः के द्विषः कोऽनुबन्धश्च संसदि । कोऽभ्युपायः सहाया: के कियन्मात्रफलं तथा ॥३८२ को कालदेशो का देवसम्पत् प्रतिहते परैः । वाक्ये ममोत्तरं सद्यः किं च स्यादिति चिन्तयेत् ।।३८३ (त्रिभिविशेषकम्) यत्पावं स्थीयते नित्यं गम्यते वा प्रयोजनात् । गुणाः स्थर्यादयस्तस्य व्यसनानि विचिन्तयेत् ॥३८४ उत्तमैका सदारोप्य प्रसिद्धिः काचिदात्मनि । अज्ञातानां पुरे वासो युज्यते न कलावताम् ॥३८५ दिखाऊ विशेष आडम्बर नहीं छोड़ना चाहिए ||३७६।। स्वकार्य-साधक पुरुषको जिस किसी भी मनुष्यका विश्वास कभी नहीं करना चाहिए। विशेष करके जो पुरुष ज्ञानी जनोंके द्वारा प्ररूपित समस्त धर्म-कार्योंके विच्छेदको इच्छा करते हैं, उनका तो कभी भी विश्वास नहीं करे । जो अपनी माताके द्वारा उदरसे उत्पन्न रौद्र और आर्तध्यानके धारक हैं, पाखण्डी हैं तथा जो क्रूरस्वभावी हैं, असत्यवादक पुरुषोंके समीप निवास करते हैं, पहिलेसे जिनका कोई परिचय नहीं है, बालक हैं, स्त्रियाँ हैं, तथा जो स्वर्णकार हैं, जल और अग्निके प्रभू (स्वामी) हैं, कूट-भाषी हैं, नीच जातिके हैं, आलसी हैं तथा विशेष पराक्रमवाले हैं, कृतघ्न है, चोर हैं, और नास्तिक हैं, ऐसे पुरुषोंका तो कभी भी विश्वास नहीं करना चाहिए ।।३७७-३८०।।। ___ मनुष्यको सदा ही इन बातोंका विचार करना चाहिए कि हमार कौनसा कुल है, हमारा कितना शास्त्रज्ञान हैं, हमारा क्या कर्तव्य है, हमारी क्या आय है और क्या व्यय है, हमारी क्या वचन-शक्ति है, यह क्लेश हमें क्यों प्राप्त हुआ है, हमारी बुद्धिका क्या विस्तार है, हमारी क्या शक्ति है, हमारे कौन शत्रु या विद्वेषी है, मैं कौन हूँ, सभामें मेरा क्या अनुबन्ध (स्वीकृत-सम्बन्ध) है, मेरे कार्यका क्या उपाय है, मेरे कौन सहायक हैं, तथा मेरे इस कार्यका कितना फल प्राप्त होगा तथा वर्तमानमें कौनसा काल और देश है, मेरी क्या देवी सम्पत्ति है तथा दूसरोंके द्वारा वाक्यके प्रतिघात किये जानेपर मेरा शीघ्र क्या उत्तर होगा? इन सभी बातोंका सदा ही विचार करते रहनेस मनुष्य सदा लाभ, यश एवं सम्मानको प्राप्त होता है और कभी उसे पराभवका प्राप्त नहीं होना पडता है ॥३८१-३८३।। मनुष्य जिसके समीप नित्य उठता-बैठता है, अथवा प्रयोजनसे जिसके पास जाता है, उस व्यक्तिमें स्थैर्य आदि कोनसे विशेष गुण है, अथवा अस्थिरता-ओछापन आदि कौन-कौनसे दुर्व्यसन हैं, इसका सदा ही विचार करना चाहिए ॥३८४॥ जिस उत्तम सभामें बैठकर जिससे अपने आपमें कोई प्रसिद्धि प्राप्त हो, उसका सदा आश्रय लेना चाहिए। किन्तु अजानकार लोगोंके नगरमें कलावान् पुरुषोंको कभी निवास नहीं करना चाहिए ।।३८५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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