SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कुन्दकुन्द श्रावकाचार अमनोजे श्मशाने च शन्यस्थाने चतुष्पथे। तुषशुष्कतणाकोणे विषमे वा खरस्वरे ॥३६८ वृक्षाने पर्वताग्रे च नवीकूपतटे स्थितिम् । न कुर्याद भस्मकेशेषु कपालाङ्गारकेषु च ॥३६९ अथ विशेषोपदेशक्रमःमन्त्रस्थानमनाकाशमेकद्वारमसङ्कटम् । निःश्वासादि च कुर्वीत दूरसंस्थाच यामिकः ॥३७० मन्त्रस्थाने बहुस्तम्भे कदाचिल्लोयते परः । वृक्षान-प्रतिध्वानश्रुतिसम्प्रतभित्तिके ॥३७१ शून्याधोभूमिके स्थाने गत्वा वा काननान्तरे। __ मन्त्रयेत्सम्मुखः साधं मन्त्रिभिः पञ्चभिस्त्रिभिः ॥३७२ सालस्यैलिडिभिदीर्घसूत्रिभिः स्वल्पबुद्धिभिः । समं न मन्त्र येन्नैव मन्त्रं कृत्वा विलम्व्यते ॥३७३ भूयान्सः कोपना यत्र भूयान्सो मुखलिप्सवः । भूयान्स कृपणाश्चैव सार्थः स स्वार्थनाशनः ॥३७४ सर्वकार्येषु सामर्थ्यमाकारस्य तु गोपनम् । धृष्टत्वं च सवभ्यस्तं कर्तव्यं विजिगोषुणा ॥३७५ भवेत्परिभवस्थानं पुमान प्रायो निराकृतिः । विशेषाण्डम्बरस्तेन न मोच्यः सुधिया क्वचित् ॥३७६ खेलनेके स्थानकमें, पराभव होनेके स्थान पर, किसीके भाण्डागार (कोष-खजाने) में और दूसरोंके अन्तःपुरमें नहीं जाना चाहिए ।।३६७|| अमनोज्ञ ( असुन्दर ) स्थानमें, मरघटमें. शून्य स्थानमें, चौराहे पर, भूखा और सूखे तृष्णोंसे व्याप्त स्थानमें अथवा विषम एवं खर स्वरवाले स्थानमें, वृक्षके अग्रभाग पर, पर्वतके अग्र शिखर पर, नदोके किनारे, कूपके तट पर, भस्म (राख) पर, केशों पर, कपालों पर और अंगारों पर कभी अवस्थान नहीं करना चाहिए ॥३६८।। अब विशेष उपदेश कहते हैं विचारशील यामिक ( संयमी) पुरुष जिस स्थान पर किसी गुप्त बातकी मंत्रणा करे वह मंत्रस्थान अनाकाश हो अर्थात् खुले मैदानमें न करे, जिस भवनमें करे, वह एक द्वारवाला हो, जहाँ पर किसी प्रकारके संकटकी सम्भावना न हो और मंत्रणा करनेवाले पुरुष दूरवर्ती स्थान पर निःश्वास आदि करें।।३७०॥ यदि मंत्रस्थान अनेक स्तम्भोंवाला हो, तो वहाँ पर दूसरा मंत्रभेदी पुरुष छिप सकता है । वृक्षकी शाखा जिससे लगी हो, ऐसे स्थान पर और जहाँ प्रतिध्वनि सुनाई दे, ऐसी भीतिसे संलग्न स्थान पर मंत्रणा न करे ॥३७१॥ अतएव गुप्त मंत्रणा करनेवाले पुरुषको शून्य स्थान, अधोभूमिवाले स्थान ( भूमिगृह ) अथवा वनके मध्यमें जा करके तीन या पांच मंत्रियों ( सलाहकारों ) के साथ सम्मुख बैठकर मंत्रणा करनी चाहिए ॥३७२।। जो आलस्ययुक्त हैं, विभिन्न लिंगोंके धारक हैं, दीर्घसूत्री ( बहुत विलम्बसे विचार करनेवाले ) हैं और अल्प बुद्धिवाले है, ऐसे पुरुषोंके साथ कभी मंत्रणा नहीं करनी चाहिए। तथा मंत्रणा करके उसे करनेमें विलम्ब नहीं करना चाहिए ॥३७३॥ जिस स्थानपर बहुतसे क्रोधी पुरुष रहते हों, जहाँपर बहुतजन प्रमुखताके इच्छुक हों और जहांपर बहुतसे कृपण पुरुष (कंजूस) रहते हों, वहाँ सार्थवाह (व्यापारी पुरुष) अपने स्वार्थका नाश करता है ॥३७४|| विजय प्राप्त करनेके इच्छुक पुरुषको सभी कार्यों में अपने सामर्थ्यका विचार करना चाहिए, अपने मुख आदिके आकार (अभिप्राय) को गुप्त रखना चाहिए और धृष्टता तथा सत्कार्यका सदा अभ्यास करना चाहिए ॥३७५॥ प्रायः अपने अभिप्रायको नहीं छिपानेवाला पुरुष परिभवका स्थान होता है, इसलिए कहीं पर भी बुद्धिमान् पुरुषको बाहिरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy