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________________ १०८ श्रावकाचार संग्रह क्षेमार्थी वृक्षमूलं न निशोथिन्यां समाश्रयेत् । नासमाप्ते नरो दूरं गच्छेदुत्सवसूतके ॥ ३५६ क्षीरं भुक्त्वा रति कृत्वा स्नात्वा ह्यन्यगृहाङ्गनाम् । लात्वा निष्ठीव्य सक्रोशं श्रुत्वा च प्रविशेन्नहि ॥ ३५७ कारयित्वा नरः क्षौरमश्रामोक्षं विधाय न । गच्छेद् ग्रामान्तरं नैव शकुनापाटवेन च ॥ ३५८ नद्या: परतटाद् गोष्ठात् क्षीरद्रोः सलिलाशयात् । नातिमध्यंदिने नार्धरात्रो मार्ग बुधो व्रजेत् ॥ ३५९ नासम्बलश्चलेन्मार्गे भृशं सुप्यान्न वासके । सहायानां च विश्वासं विदधीत न धीनिधिः ॥ ३६० महिषाणां खराणां च न्यक्करणं कदाचन । खेदस्पृशापि नो कार्यमिच्छता श्रियमात्मनः ॥ ३६१ गजात्करसहस्रेण शकटात्पञ्चभिः करेः । शृङ्गिणोऽश्वाच्च गन्तव्यं दूरेण दशभिः करैः ।। ३६२ न जीर्णा नावमारोहेन्नद्यामेको विशेन्न च । न वा तुच्छमतिर्गच्छेत् सोदर्येण समं पथि ॥ ३६३ न जलस्थलदुर्गांणि विकटामटवों न च। न चागाधानि तोयानि विनोपायं विलङ्घयेत् ॥३६४ क्रूरे राक्षसकैः कर्णेजपैः कारुजनैस्तथा । कुमित्रैश्च समं गोष्ठों चर्या वा कालकों त्यजेत् ॥ ३६५ धूर्तावासे वने वेश्यामन्दिरे धर्मसद्मनि । सदा गोष्ठी न कर्तव्या प्राज्ञैरापान केऽपि च ॥३६६ बद्धबध्याश्रये द्यूतस्थापने परिभवास्पदे । भाण्डागारे न गन्तव्यं परस्यान्तःपुरे न च ॥ ३६७ लाकर, अपनी क्षेमकुशलता चाहनेवाला पुरुष रात्रिमें वृक्षके मूलभागका कभी आश्रय नहीं लेव । इसी प्रकार उत्सव (मांगलिक कार्य) और सूतक - पातकके समाप्त नहीं होनेतक दूरवर्ती स्थानको नहीं जावे || ३५६ || क्षीर (खीर या दूध) खा-पीकर स्त्रीके साथ रमणकर, अन्य घरकी स्त्रीको निष्ठीवन करके और आक्रोश-युक्त वचन सुन करके अन्य पुरुषके घरमें प्रवेश नहीं करे ||३५७|| क्षौरकर्म (हजामत ) कराके लगे बालोंको साफ न करके अर्थात् स्नान किये बिना तथा शकुनकी अकुशलतासे अर्थात् अपशकुन होनेपर दूसरे ग्रामको कभी नहीं जाना चाहिए || ३५८|| बुद्धिमान् पुरुष नदीके दूसरे किनारेसे. गोष्ठ (गायोंके ठहरनेके स्थान) से क्षीरीवृक्षसे, जलाशय से, न अति मध्याह्नमें और न अर्धरात्रिमें मार्ग -गमन नहीं करे || ३५९ ।। बुद्धिमान पुरुष बिना संबल ( खान-पानका द्रव्य) लिए मार्ग में नहीं चले, किसी सरायधर्मशाला आदि निवासके स्थानपर अधिक गहरी नींदसे नहीं सोव, तथा मार्ग में गमन करते समय सहायकों या साथियों का विश्वास भी नहीं करे || ३६० ।। भैंसे पाड़ोंका और गर्दभोंका तिरस्कार कभी भी वेदखिन्न होनेपर भी अपना कल्याण चाहनेवाले पुरुषको नहीं करना चाहिए || = ६१ || गमन करते समय हाथीसे एक हजार हाथ दूर, गाड़ीसे पांच हाथ दूर तथा सींगवाले जानवरोंसे और घोड़ोंसे दश हाथ दूर रहकर चलना चाहिए ॥३६२॥ नदी आदि जल स्थानको पार करनेके लिए जीर्ण-शीर्ण नाव पर नहीं आरोहण करे, नदी में अकेले प्रवेश नहीं करे, तथ अतुच्छ (विशाल) बुद्धिवाले पुरुषको मार्ग में अपने सगे भाईके साथ भी गमन नहीं करना चाहिए || ३६३॥ जल-मार्ग, स्थल मार्ग, दुर्ग (किला) विकट अटवी ( सघनवन- प्रदेश) और अगाध जलको विना सहायक उपायके उल्लंघन नहीं करना चाहिए || ३६४ ॥ क्रूर स्वभावी पुरुषों, राक्षसजनों, कर्णेजपों (चुगलखोरों) कार (शूद्र जातीय शिल्पिजनों) तथा खोटे मित्रोंके साथ गोष्ठी और अकालकी चर्या ( गमनागमन) का परित्याग करे || ३६५ || बुद्धिमानों को धूर्तोंके घरोंमें, वनमें, वेश्याके भवनमें, धर्म-स्थानमें और मदिरा पानके स्थानों में भी कभी गोष्ठी नहीं करना चाहिए || ३६६ || पाप-कार्य में बाँधे गये बध्य पुरुषके आश्रयमें, जुआ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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