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________________ कुन्दकुन्द श्रावकाचार १०७ . श्लेष्मातस्य तथा पाण्डुमिश्रश्चदोषस्य मिश्रिता । दृष्टेः प्रतिजनं भेदा भवन्त्येवमनेकधा ॥३४० अथ चक्रमणक्रमःउद्यमे सप्तमी प्राज्ञो न व्रजेन्निःफलं क्वचित् । भुक्तानां चूतमेकं च भक्ष्यमद्यान्न गच्छता ॥३४८ युगमात्रान्तरन्यस्तदृष्टिः पश्यन् पदं पदम् । रक्षार्थ स्वशरीरस्य जन्तूनां च सवा व्रजेत् ॥३४९ शालूर-रासभोष्ट्राणां वर्जनीया सदा गतिः । राजहंसवृषाणां तु सा प्रकामं प्रशस्यते ॥३५० कार्याय चलितः स्थानाद् वहन्नाडिपदं पुरः । कुर्वन् वाञ्छितसिद्धीनां भाजनं जायते नरः ॥३५१ एकाकिना न गन्तव्यं कस्याप्येकाकिनो गृहे । नैवोपरि पथेनापि विशेत् कस्यापि वेश्मनि ॥३५२ रोगिवृद्धद्विजान्धानां धेनुपूज्यक्षमाभुजाम् । गर्भिणीभारभुग्नानां दत्वा मार्ग व्रजेदथ ॥३५३ धान्यं पक्वमपक्वं वा पूजार्थ मन्त्रमण्डलम् । न त्यक्त्वोद्वर्तनं लथ्यं स्नानाम्भोऽसृक्शवानि च ॥३५४ निष्ठयूतश्लेष्मविण्मूत्रज्वलद्वह्निभुजङ्गमम् । मनुष्यमबुधं धीमान् कदाप्युल्लङ्घयेन्न च ॥३१५ दोषवालेकी दृष्टि पीतवर्णवाली नीली और कपित्थ (कवीट) के समान होती है ॥३४६।। श्लेष्मा (कफ) से पीड़ित पुरुषकी दृष्टि पाण्डुवर्णकी होती है, पित्त, वात आदि दोषोंसे मिश्रित व्यक्ति की दृष्टि मिश्रित वर्णवाली होती है। इस प्रकार प्रत्येक जनकी अपेक्षासे दृष्टिके अनेक प्रकारके भेद होते हैं ॥३४७॥ अब बाहिर गमन करनेका विचार करते हैं बुद्धिमान् पुरुष सप्तमीको कहींपर भी निष्फल न जावे । तथा जाते हुए मुक्त (भोजन किये हुए) पुरुषोंको एक आमको छोड़कर अन्य कुछ नहीं खाना चाहिए ।।३४८॥ युग-मात्र (चार हाथ-प्रमाण) सामनेको भूमिपर दृष्टि रखते हुए और अपने शरीरको रक्षाके लिए तथा अन्य जन्तुओंकी रक्षाके लिए पद-पद-प्रमाण भूमिको देखते हुए सदा गमन करना चाहिए ॥३४९।। चलते समय शालूर (मेंढक) रासभ और ऊँटकी चालसे गमन सदा वर्जन करना चाहिए। किन्तु राजहंस और वृषभ (बैल) की गति सदा उत्तम प्रशंसनीय होतो है ॥३५०॥ किसी कार्य-विशेषके लिए चलता हुआ पुरुष जो नाड़ी (नासिका-स्वर) चल रही हो उसी पैरको आगे करके गमन करता हआ अभीष्ट सिद्धियोंका पात्र होता है ॥३५१।। किसी भी अकेले पुरुषके घरमें कभी भी अकेले नहीं जाना चाहिए। इसी प्रकार किसी भी पुरुषके घरमें अकेले ऊपरी मार्गसे भी प्रवेश नहीं करना चाहिए ॥३५२।। रोगी पुरुष, वृद्धजन, ब्राह्मण, अन्धे पुरुष, गाय, पूज्य पुरुष, भूमिपति, गर्भिणो स्त्री, और भार (बोझा) को धारण करनेवाले लोगोंको मार्ग देकर पुनः गमन करना चाहिए ॥३५३॥ पकी या अधपकी धान्यको, पूजनकी सामग्रीको, मंत्रमण्डलको, छोड़कर गमन करे। तथा उद्वर्तनका द्रव्य, स्नानका जल, पुष्प-माला और मृत शरीरोंको भी लांघ करके गमन नहीं करना चाहिए ॥३५४।। इसी प्रकार बुद्धिमान् पुरुष, थूके गये कफको, मल-मूत्रको, जलती हुई अग्निको, सर्पको, और अज्ञानी मनुष्यको कभी भी उल्लंघन करके गमन न करे ॥३५५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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