SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 307
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०६ कुन्दकुन्द श्रावकार बहवो वीक्षणस्यैवं कति भेदाः क्षणस्य च । तादृक् स्वरूपमतो वक्ष्ये स्वभावोपाधिसम्भवम् ।।३३५ स्तुत्यं धवलत्वं च श्यामत्वमतिनिर्मलम् । पर्यन्तपार्वतारा सुदृशोः शस्यं यथाक्रमम् ॥३३६ हरितालनिभैश्चक्री नेत्र लैरहकृतः । विस्तीर्णाक्षो महाभोगी कामी पारावतेक्षणः ॥३३७ नकुलाक्षो मयूराक्षो मध्यमः पुरुषः पुनः । काकाक्षो धूसराक्षश्च मण्डूकाक्षश्च तेऽधमाः ॥३३८ दुष्टो दारुणदृष्टिः स्यात्कुक्कुटाक्षः कलिप्रिंयः । दृष्टिरागी भुजङ्गाक्षी मार्जाराक्षश्च पातको ॥३३९ श्यामदृक सुभगः स्निग्धलोचनो भोगभाजनम् । स्थूलहग विधनो दीनदृष्टिः स्यादधनो नरः ॥३४० भृतार्तश्च परः प्रायः स्तोकोन्नयनः ( ? ) पुमान् । वृत्तयोर्नेत्रयोरल्पतरमायुस्तनूभृताम् ॥३४१ विवणेः पिङ्गलैतैिश्चञ्चलै रतिपूर्णकैः । अधमाः स्युः कृतो रूक्षैः सजलैनिर्जल: पुनः ॥३४२ अचक्षुरेकचक्षुश्च तथा केङ्करनेत्रकः । अथ कातरनेत्रः स्यादेषां क्रूरपरम्पराः ॥३४३ ।। भूताविष्टस्य दृष्टिः स्यात् प्रायेणो_विलोकिनी। मिलिता मुद्गताक्षस्य देवता तस्य दुःसहा ॥३४४ शाकिनीभिहीतस्याधोमुखी च भयानका । वातार्तस्य च भीरुः स्याद् वन्याधिकतरं चला ॥३४५ अरुणा श्यामला वापि जायते धर्मरोगिणः । पित्तदोषवतः पोता नीला चक्षुः कपित्थवत् ॥३४६ का अवलोकन वास-युक्त होता है ।।३३४।। इस प्रकार निरीक्षणके बहुतसे भेद होते हैं, इसी प्रकार क्षण ( देखनेके अवसर ) के भो कितने ही भेद होते है । अतएव निरीक्षणका स्वरूप और स्वभाव या बाह्य उपाधि-जनित निरीक्षणके भेदोंको कहूँगा ।।३३५।। उत्तम नेत्रोंकी धवलता स्तुल्य है, श्यामता, अति निर्मलता. न्ति तक तारा यथाक्रमसे प्रशंसाके योग्य होती है ॥३३६॥ हरितालके सदृश वर्णवाले . मनुष्य चक्रवर्ती होता है। नीले वर्णवाले नेत्रोंसे व्यक्ति अहंकारी होता है, विस्तीर्ण नेत्रवाला पुरुष महाभोगशाली होता है और कपोतके समान नेत्रवाला पुरुष कामी होता है ।।३३७।। नेवलेके समान नेत्रवाला और मोरके सदृश नेत्रवाला पुरुष मध्यम श्रेणीका होता है। काक जैसे नेत्रवाला, धूसर नेत्रवाला और मण्डूक (मेंढक) के सदृश नेत्रवाला पुरुष ये सब अधम होते हैं ॥३३८।। दारुण दृष्टिवाला पुरुष दुष्ट होता है. कुक्कुटके समान नेत्रवाला पुरुष कलह-प्रिय होता है, भुजंगके समान नेत्रवाला दृष्टिरागी होता है तथा मार्जार नेत्रवाला व्यक्ति पापी होता है ॥३३९।। श्याम नेत्रवाला पुरुष सुभग होता है, स्निग्ध नेत्रवाला पुरुष भोगोंका भोक्ता होता है। स्थूल नेत्रवाला पुरुष विशिष्ट धनी होता है और दीन दृष्टिवाला पुरुष निर्धन होता है ॥३४०।। भूत-पीड़ित और नम्र नेत्रवाला पुरुष पराश्रित होता है, इसी प्रकार कुछ उन्नत नेत्रवाला भी पराश्रित होता है। गोल नेत्रधारियोंको आयु अत्यल्प होती है ॥३४१॥ _ विवर्ण, पिंगल वर्ण, वात-युक्त, चंचल और रति (विलास) पूर्ण नेत्रोंसे मनुष्य कर्तव्य-कार्य करनेमें अधम होते हैं। रूक्ष और निर्जल नेत्रोंसे पुरुष निर्लज्ज होता है ।।३४२।। नेत्र-रहित, एक नेत्रवाला और केंकर नेत्रवाला तथा कातर नेत्रवाला पुरुष इन सबकी क्रूर-परम्परा होती हैं ॥३४॥ भूताविष्ट पुरुषको दृष्टि प्रायः ऊपरकी ओर देखनेवाली होती है, मुद्गत (प्रमोदको या अप्रमोदको प्राप्त) व्यक्तिकी दृष्टि मिली हई रहती है और उसको प्रेरणा करनेवाला देवता दुःसह होता है ॥३४४॥ शाकिनियोंसे गृहीत व्यक्तिकी दृष्टि अधोमुख और भयानक होती है। बेतालसे पीड़ित पुरुषको दृष्टि भीरु होती है, तथा वातरोगसे पीड़ित पुरुषकी दृष्टि अधिकतर चलायमान रहती है ।।३४५।। धर्म (धूप) से पीड़ित पुरुषको दृष्टि अरुण अथवा श्यामल होती है, पित्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy