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________________ कुन्दकुन्द श्रावकाचार स्वसृसंश्रितसम्बन्धिवयस्यैः साघमन्वहम् । वाग्विाहमकुर्वाणो विजयेत जगत्त्रयम् ॥३२६ __ अथालोक्यानालोक्यप्रक्रमःपश्येदपूर्वतीर्थानि देशान् वस्त्वन्तराणि च । लोकोत्तरां सुधोरछायां पुरुवं शकुनं तथा ॥३२७ न पश्येत्सर्वदाऽऽदित्यं ग्रहणं चाक-सोमयोः । नेक्षेताम्भो महाकूपे सन्ध्यायां गगनं तथा ॥३२८ मैथुनं पापां नग्नां स्त्रियं प्रकटयौवनाम् पशुक्रोडां च कन्यायाः पयोजान्नावलोकयेत् ॥३२९ न तैले न जले नास्त्रे न मूत्रे रुधिरे तथा । नेक्षेतवदनं विद्वान्निजायुषस्त्रुटिर्भवेत् ॥३३० अथ निरीक्षणप्रकारक्रमःऋज्वशुष्कं प्रसन्नस्य रौद्रं तिर्यक् च कोपिनः । सविकाशं सुपुण्यस्याषो खं वा पापिन पुनः ॥३३ क्षुद्रं व्यग्रमनस्कस्य वलितं वानुरागिणः । मध्यस्थं वीतरागस्य सरलं सज्जनस्य च ॥३३२ असम्मुखं विलक्षस्य सविकारं तु कामिनः । भ्रूभङ्गवक्त्रमोालोभूतमत्तस्य सर्वतः ॥३३३ जलाविलं च दीनस्य चञ्चलं तस्करस्य च । अलक्षितार्थ निद्रालोवित्रस्तं भोरकस्य च ॥३३४ अतिथि, भाई बन्धु, तपस्वी जन, वृद्ध, बालक, अबला ( नारी ) वैद्य, पुत्र, दायाद ( हिस्सेदार) और नौकर-चाकरोंके साथ, तथा बहिन, अपने आश्रित जन, सम्बन्धी जन और मित्र गणोंके साथ प्रतिदिन वचन-विग्रह ( वाद-विवाद ) को नहीं करनेवाला पुरुष तीनों जगत्को जीतता है। अर्थात् जो पुरुष पूर्वोक्त पुरुषोंके साथ किसी भी प्रकारका कभी भी खोटे वचन नहीं बोलता है, वह जगज्जेता होता है ॥३२५-३२६ ।। अब दर्शनीय और अदर्शनीय कार्यों का वर्णन किया जाता है बुद्धिमान् पुरुष अपूर्व तीर्थों को, नवीन देशोंको और नई-नई अन्य वस्तुओंको देखे। तथा लोकोत्तर छायाको, लोकोत्तम पुरुषको और शकुनको भी देखना चाहिए ॥३२७॥ सर्वकाल सूर्य नहीं देखे, सूर्य-ग्रहण और चन्द्र ग्रहणको भी नहीं देखे। महाकूपमें जलको, तथा सन्ध्याकालमें आकाशको भी नहीं देखना चाहिए ॥३२८॥ स्त्री-पुरुषके मैथुनको, पापिनी, नग्न और प्रकट यौवनवाली स्त्रीको, पशु-क्रीड़ाको और कन्याके पयोजों (स्तनों ) को भी नहीं देखना चाहिए ॥३२९॥ विद्वान् पुरुष अपने मुखको न तेलमें देखे, न जलमें देखे, न अस्त्र-शस्त्रको धारमें देखे, न मत्रमें देखे और न रक्तमें देखे । क्योंकि इनमें मुख देखनेसे आयुकी हानि होती है ।।३३०।। अब दृष्टि निरीक्षण करनेके प्रकारका वर्णन करते हैं प्रसन्न पुरुषका निरीक्षण सरल और स्निग्ध होता है, क्रोधीका अवलोकन रौद्र एवं तिरछा होता है, पुण्यशालीका निरीक्षण विकास-युक्त होता है ॥३३१॥ व्यग्र मनवालेका निरीक्षण क्षुद्रता ( तुच्छता ) युक्त होता है, अनुरागी व्यक्तिका अवलोकन कटाक्ष-युक्त होता है। वीतरागीका अवलोकन मध्यस्थ भावसे युक्त होता है और सज्जन पुरुषका निरीक्षण सरल होता है ॥३३२॥ चकित पुरुषका निरीक्षण सामनेकी ओर नहीं होता है, कामी पुरुषका अवलोकन विकार-युक्त होता है, ईर्ष्यालु पुरुषका अवलोकन भ्रूभंगयुक्त मुखवाला होता है और भूताविष्ट पुरुषका निरीक्षण सर्व ओर होता है ।।३३३॥ दीन पुरुषका अवलोकन अश्रु जलसे युक्त होता है, चोरका अवलोकन चंचल होता है, निद्राल व्यक्तिका निरीक्षण अलक्षित प्रयोजनरूप होता है, और भय-भीत पुरुष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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