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________________ श्रावकाचार-संग्रह अनुवादावरासूयाल्पोक्तिसम्भ्रमहेतुषु । विस्मयस्तुतिवीप्सासु पौनरुक्त्यं स्मृतो च न ॥३१४ न च प्रकाशयेद्गुह्यं दक्षः स्वस्यापरस्य च । चेत्कर्तुं शक्यते मौनमिहामुत्र च तच्छुभम् ॥ ३१५ सदा मूकत्वमासेव्यं चर्व्यमानेऽन्यमर्मणि । श्रुत्वा तथा स्वमर्माणि वाधियं कार्यमुत्तमैः ॥ ३१६ कालत्रयेऽपि यत्किचिदात्मप्रत्ययर्वाजतम् । एवमेतदिति स्पष्टं न वाच्यं चतुरेण तत् ॥३१७ परार्थस्वार्थराजार्थकारकं धर्मसाधकम् । वाक्यं प्रियं हितं वाच्यं देश-कालानुगं बुधैः ॥३१८ स्वामिनश्च गुरुणांश्च नाघिक्षेप्यं वचो बुधैः । कदाचिदपि चैतेषां जल्पतामन्तरे वदेत् ॥३१९ आरम्यते नरैर्यच्च कार्यं कारयितुं परैः । दृष्टान्तान्योक्तिभिर्वाच्यं तदग्रे पूर्वमेव तत् ॥ ३२० यदि वान्येन केनापि तत्तुल्यं जल्पितं भवेत् । प्रमाणमेव तत्कार्यं स्वप्रयोजन सिद्धये ॥३२१ यस्य कार्यमशक्यं स्यात्तस्य प्रागेव कथ्यते । नैहि रे याहि रे कार्यो वचोभिविततः परः ॥ ३२२ भाष्यं नैव कस्यापि वक्तव्यं द्विषतां च यत् । उच्यते तदपि प्राज्ञैरन्योक्तिच्छलाङ्गिभिः ॥ ३२३ शिक्षा तस्मै प्रदातव्या यो भवेत्तत्र यत्नवान् । गुरु साहसमेतद्धि कथ्यते यदपृच्छतः ॥३२४ मातृपित्रातुराचार्यातिथिभ्रातृतपोधनैः । वृद्धबालाबलाबैद्यापत्यदायादकिङ्करैः ॥३२५ १०४ देवें ॥३१३॥ अनुवाद, आदर, असूया, अल्प-भाषण, सम्भ्रम हेतु, विस्मय, स्तुति और वीप्सा (दुहराना) में तथा स्मरण रखनेमें पुनरुक्ति दोष नहीं माना जाता है || ३१४|| कुशल पुरुष अपनी और दूसरोंकी गुप्त बात प्रकाशित न करे । गुप्त बात कहनेका अवसर आने पर यदि मौन धारण करना शक्य हो तो वह इस लोक और परलोकमें शुभ-कारक है || ३१५ || दूसरोंके मर्मकी बात कहनेमें सदा ही मूकपना सेवन करना चाहिए, अर्थात् मौन रहता ही अच्छा है । तथा अपने म की बातों को सुन करके उत्तम पुरुषोंको बधिरपना धारण करना चाहिए || ३१६ || जो कोई बात तीन कालमें भी आत्म-प्रतीतिसे रहित हो, उसे 'यह ऐसा ही हैं' इस प्रकार स्पष्ट रूपसे वह चतुर पुरुषको कभी नहीं कहना चाहिए ||३१७|| जो वचन परोपकार करनेवाले हों, अपना प्रयोजन-साधक हो, राजाके अर्थको सिद्ध करने वाले हों और धर्म-साधक हो, ऐसे प्रिय और हित-कारक वचन देश और कालके अनुसार बुधजनों को बोलना चाहिए || ३१८ || स्वामीके और गुरुजनोंके वचनोंका बुद्धिमानोंको कभी तिरस्कार नहीं करना चाहिए । तथा स्वामी या गुरुजनोंके बोलते समय बीचमें कभी भी नहीं बोलना चाहिए || ३१९ || मनुष्य जिस कार्यको दूसरोंसे कराना प्रारम्भ करें तो उसे उनके आगे पहिले ही दृष्टान्त और अन्योक्ति से कह देना चाहिए। ( जिससे कि उस कार्य के अन्यथा करनेपर पीछे झुंझलाना न पड़े | ) || ३२० ॥ अथवा अपने मनके तुल्य उस कार्यको यदि अन्य किसी पुरुषने कह दिया हो तो उसे अपने प्रयोजनकी सिद्धिके लिए प्रमाण ही स्वीकार करना चाहिए || ३२१ ॥ जिस पुरुष का कार्य अपने द्वारा करना अशक्य हो, उसे पहिले ही स्पष्ट कह देना चाहिए कि भाई यह कार्य मेरे द्वारा किया जाना संभव नहीं है, हे भाई, आप जाइये, पुनः मत कष्ट उठाइये, इस प्रकारके वचनोंसे दूसरे व्यक्तिको अंधरे में न रखकर सचेत कर देना चाहिए || ३२२॥ द्वेष करने वाले पुरुषोंका जो भी वक्तव्य हो वह किसी भी अन्य पुरुषके आगे नहीं कहना चाहिए । यदि कदाचित् उसे कहना ही पड़े तो अम्योकि या अन्य किसी बहानेसे ज्ञानी जनोंको कहना चाहिए ॥ २२३ ॥ शिक्षा उस व्यक्तिको देनी चाहिए जो उसे करनेमें प्रयत्नशील हो । विना पूछे जो बात कही जाती है, वह तो उसका भारी गुरु साहस है || ३२४ || माता, पिता, आतुर (रोगी) आचार्य, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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