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________________ कुन्दकुन्द श्रावकाचार १०१ द्रव्यं नवविषं प्रोक्तं पृथिवीजलवह्नयः । पवनो गगनं कालो विगात्मा मन इत्यपि ॥२८७ नित्यानित्यानि चत्वारि कार्यकारणभावतः। अथ गुणाःस्पर्श रूपं रसो गन्धः सङ्ख्या च परिमाणकम् । पृथक्त्वमथ संयोगं वियोगं च परत्वकम् ॥२८८ अपरत्वं बुद्धि-सौख्ये दुःखेच्छे द्वेषयत्नको । धर्माधर्मी च संस्कारो इत्यपि गुरुत्वं द्रव ॥२८९ स्नेहशब्दो गुणा एवं विशतिश्चतुरन्विता । अथ कर्माणि वक्ष्यामि प्रत्येकमभिधानतः ॥२९० उत्क्षेपणावक्षेपणाकुञ्चनं च प्रसारणम् । गमनानीति कर्माणि पञ्चोक्तानि तवागमे ॥२९१ सामान्यं भवति द्वेधा परं चैवापरं तथा । परमाणुषु वर्तन्ते विशेषा नित्यवृत्तयः ।।२९२ __इति सामान्य-विशेषो। भवेदयुतसिद्धानामाधाराधेयवतिनाम् । सम्बन्धः समवायाख्य इहप्रत्ययहेतुकः ॥२९३ विषयेन्द्रियबुद्धीनां वपुषः सुख-दुःखयोः । अभावादात्मसंस्थानं मुक्तिनँयायिको मता ॥२९४ चतुविंशतिवैशेषिकगुणान्त्यगुणा नव । बृद्धयादयस्तदुच्छेदो मुक्तिर्वैशेषिको तु सा ।।२९५ आधारभस्मकौपीनजटायज्ञोपवीतिनः । मन्त्राचारादिभेदेन चतुर्धाः स्युस्तपस्विनः ॥२९६ हैं-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय । अब इन तत्त्वोंके भेद कहे जाते हैं ॥२८॥ द्रव्य नामक तत्त्व नौ प्रकारका कहा गया है-पृथिवो, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन ॥२८७।। इनमेंसे प्रारम्भके चार तत्त्व कार्य और कारण भावकी अपेक्षा नित्य भी है और अनित्य भी है। अर्थात् परमाणुरूप पृथिवी आदि नित्य है और घटादिरूप कार्य अनित्य हैं। अब गुणोंका वर्णन करते हैं-१. स्पर्श, २. रूप, ३. रस, ४. गन्ध, ५. संख्या, ६. परिमाण, ७ पृथक्त्व, ८. संयोग, ९. वियोग ( विभाग), १०. परत्व, ११. अपरत्व, १२. बुद्धि, १३. सुख, १४. दुःख, १५. इच्छा, १६. द्वेष, १७. प्रयत्न, १८. धर्म, १९. अधर्म, २०. संस्कार, २१. द्रवत्व, २२. वेग, २३. स्नेह और २४. शब्द । इस प्रकारसे ये २४ गुण माने गये हैं। अब प्रत्येकके नामपूर्वक कर्मोको कहते हैं-१. उत्क्षेपण, २. अवक्षेपण, ३. आकुञ्चन, ४. प्रसारण और ५. गमन । ये पाँच प्रकारके कर्म उनके आगममें कहे गये हैं ॥२८८-२९१।। सामान्य तत्त्व दो प्रकारका है-परसामान्य और अपरसामान्य । विशेष तत्त्व नित्य रूपसे परमाणुओंमें रहते हैं ॥२९२॥ इस प्रकार सामान्य और विशेष तत्त्वका वर्णन किया। अब समवायतत्त्वका स्वरूप कहते हैं-अयुतसिद्ध (अभिन्न सम्बन्ध) वाले और आधारआधेय रूपसे रहनेवाले ऐसे गुण-गुणी, अवयव-अवयी आदिमें 'इह इदम्' इस प्रकारके प्रत्ययका कारणभूत जो सम्बन्ध है, वह समवाय नामका तत्त्व कहलाता है ।।२९३॥ विषय, इन्द्रिय, बुद्धि, शरीरके सुख और दुःख इनके अभावसे आत्माका अपने स्वरूपमें जो अवस्थान होता है, वही नैयायिक मतमें मुक्ति मानी गई है ।।२९४॥ वैशेषिक मतमें जो चौबीस गुण माने गये हैं उनमेंके अन्तिम बुद्धि आदि नौ गुणोंके अत्यन्त उच्छेद होनेको वैशेषिक मतमें मुक्ति माना गया है ।।२९५॥ शैव मतके मानने वाले तपस्वो कहलाते हैं। उनके शरीरका आधार भस्म, कोपीन, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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