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________________ श्रावकाचार-संग्रह यदेव जायते भेदः प्रकृतेः पुरुषस्य च । मुक्तिरक्ता तदा साङ्ख्यैः ख्याति: सैव च भण्यते ॥२७८ साङ्ख्यः शिखी जटी मुण्डी कषायाधम्बरधरोऽपि च । वेषो नास्त्येव साङ्ख्यस्य पुनस्तत्त्वे महाग्रहः ॥२७९ इति सांख्यमतम् । अथ शेवमतम्शेवस्य दर्शने तर्कावुभौ न्याय-विशेषको । न्याये षोडशतत्त्वो स्यात् षट्तत्त्वी च विशेषके ॥२८० अन्योन्यतत्स्वान्तर्भावाद द्वयोर्भेदोऽपि नास्ति कः। द्वयोरपि शिवो देवो नित्यः सृष्टचाविकारकः ॥२८१ अथ तत्त्वानिप्रमाणं च प्रमेयं च संशयश्च प्रयोजनम् । दृष्टान्तोऽथ सिद्धान्तावयवो तर्क-निर्णयौ ॥२८२ वादो जल्पो वितण्डा च हेत्वाभासाश्छलानि च । जातिनिग्रहस्थानानीति तत्त्वानि षोडश ॥२८३ नैयायिकानां चत्वारि प्रमाणानि भवन्ति च । प्रत्यक्षमागमोऽन्यच्चानुमानमुपमापि च ॥२८४ अथ वैशेषिकमतम्वैशेषिकमते तावत्प्रमाणं त्रितयं भवेत् । प्रत्यक्षमनुमानं च तायकस्तथाऽगमः ॥२८५ द्रव्यं गुणस्तथा कर्म सामान्यं सविशेषकम् । समवायश्च षट्तत्त्वी तत्त्वाल्यानमथोच्यते ॥२८६ __ जब जीवको प्रकृति और पुरुषका भेद ज्ञात होता है, तभी उसे सांख्योंने मुक्ति कहा है और उसे ही 'ख्याति' भी कहते हैं ॥२७८।। सांख्य लोग शिखा, जटा भी रखते हैं और कोई-कोई मुण्डित मस्तक भी रहता है। ये लोग कषाय रंगके वस्त्रोंको धारण करते हैं। सांख्योंका कोई वेष स्थिर नहीं हैं, किन्तु तत्त्वके विषयमें ये सब महाग्रही है, अर्थात् पच्चीस ही तत्त्वोंको मानते हैं ।।२७९॥ अब शैवमतका निरूपण करते हैं शेतके दर्शनमें दो जातिके तर्कवादी हैं-एक न्यायवादी नैयायिक, और दूसरा विशेषवादी वैशेषिक । इनमें नैयायिक सोलह तत्त्वोंको मानता है और वैशेषिक छह तत्त्वोंको मानता है ।।२८०॥ उक्त दोनों ही तर्क-वादियोंके तत्त्वोंका परस्पर अन्तर्भाव हो जानेसे कोई खास भेद नहीं है। दोनोंके मतोंमें शिवको देव माना गया है, जो कि नित्य है और सृष्टि आदिका कर्ता है ॥२८॥ नैयायिक मतमें माने गये सोलह तत्त्व इस प्रकार है-१. प्रमाण, २. प्रमेय, ३. संशय, ४. प्रयोजन, ५. दृष्टान्त, ६. सिद्धान्त, ७. अवयव, ८. तर्क, ९. निर्णय, १०. वाद, ११. जल्प, १२. वितण्डा, १३. हेत्वामास, १४. छल, १५. जाति और १६. निग्रहस्थान ।।२८२-२८३॥ नैयायिकोंके मतमें चार प्रमाण माने गये हैं-प्रत्यक्ष, आगम, अनुमान और उपमान ॥२८४।। अब वैशेषिक मतका वर्णन करते हैं-वैशेषिक मतमें तीन प्रमाण माने गये हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान और तीसरा आगम ॥२८५॥ इनके मतमें छह तत्त्व माने गये हैं, जिनके नाम इस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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