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कुन्दकुन्द श्रावकाचार प्रत्यक्षमनुमानं च प्रमाणं द्वितयं तथा । चतुः प्रस्थानिका बौद्धाः ख्याता वैभाषिकादयः ॥२६७ अर्थो ज्ञानान्वितो वैभाषिकेण बहु मन्यते । सौत्रान्तिकेन प्रत्यक्षग्राह्योऽर्थो न बहिर्मतः ॥२६८ बाकारसहिता बुद्धिर्योगाचारस्य सम्मता। केवलां संविदं स्वस्थां मन्यन्ते मध्यमाः पुनः ॥२६९ रागादिज्ञानसन्तानवासनोच्छेदसम्भवा । चतुर्णामपि बौद्धानां मुक्तिरेषा प्रकोत्तिता ॥२७० कृत्तिकमण्डलुमौरचं वीरं पूर्वाह्न भोजनम् । सङ्घो रक्ताम्बरत्वं च शिधिये बौद्धभिक्षुभिः ॥२७१
इति बौद्धमतम् । अथ साङ्ख्यमतम्सायैर्देवः शिवः कश्चिन्मतो नारायणोऽपरैः । उभयोः सर्वमप्यन्यत्तत्त्वप्रभृतिकं समम् ॥२७२ साङ्ख्यानां स्युर्गुणाः सत्त्वं रजस्तम इति त्रयः । साम्यावस्था भवत्येषां त्रयाणां प्रकृतिः पुनः ॥२७३ प्रकृतेः स्यान्महांस्तावदहङ्कारस्ततोऽपि च । पञ्च बुद्धोन्द्रियाणि स्युश्चक्षुरादीनि पञ्च च ॥२७४ कर्मेन्द्रियाणि वाक्पाणिचरणोपस्थपायवः । मनश्च पञ्च तन्मात्राः शब्दो रूपं रसस्तथा ॥२७५ स्पर्शो गन्धोऽपि तेम्यः स्यात् पृथ्व्याचं भूतपश्चकम् । भवेत्प्रकृतिरेतस्याः परस्तु पुरुषो मतः ॥२७६ पञ्चविंशतितत्त्वानि नित्यं सांख्यमते जगत् । प्रमाणं त्रितयं चात्र प्रत्यक्षमनुमागमः ॥२७७ होती है, वह मार्ग है, ऐसा जानना चाहिए। यह मार्ग ही मोक्ष कहा जाता है ॥२६६।। बौद्धमतमें प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो ही प्रमाण माने गये हैं। वैभाषिक आदि चार प्रकारके बौद्ध प्रसिद्ध हैं ॥२६७।। इनमें वैभाषिक लोग ज्ञानसे युक्त पदार्थको मानते हैं। सौत्रान्तिक लोग प्रत्यक्षसे ग्रहण किया जानेवाला पदार्थ मानते हैं, किन्तु उसकी बाह्य सत्ता नहीं मानते हैं ॥२६८|| योगाचारके मतमें पदार्थके आकार-सहित बुद्धिको माना गया है। किन्तु माध्यमिक बौद्ध तो केवल अपनेमें अवस्थित संविद् (ज्ञान) को मानते हैं ।।२६९|| राग आदिके ज्ञान-सन्तानरूप वासनाके उच्छेदसे होनेवाली अवस्थाको ही चारों प्रकारके बौद्ध 'मुक्ति' मानते हैं ॥२७॥
बौद्ध भिक्षुओंने कृत्ति (चर्म) कमण्डलु, मोड्य (मौजी) चीर (वस्त्र) पूर्वाह्नकालमें भोजन . करना, संघमें रहना और रक्त वस्त्रको धारण करना इस वेषका आश्रय लिया है ।।२७१।।
अब सांख्यमतका निरूपण करते हैं
कितने ही सांख्योंने शिवको देव माना है और कितने ही दूसरे सांख्योंने नारायणको देव माना है। शेष अन्य सर्व तत्त्व आदिकी मान्यता दोनोंकी समान हैं ॥२७१।। सांख्योंके मतमें सत्त्व, रजस् और तमस् ये तोन गुण माने गये हैं। इन तीनों गुणोंकी साम्य अवस्थाको प्रकृति माना गया है ॥२७२।। सांख्योंके मतानुसार प्रकृतिसे महान् उत्पन्न होता है, उससे अहंकार उत्पन्न होता है अहंकारसे चक्षु आदिक पाँच बुद्धि या ज्ञानेन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं, तथा वचन, पाणि, चरण, उपस्थ (मूत्र-द्वार) और पायु (मलद्वार) ये पांच कर्मेन्द्रियां उत्पन्न होती हैं, तथा मन भी उत्पन्न होता है । पाँच ज्ञानेन्द्रियोंके शब्द, रूप आदि विषय हैं, इन्हें ही तन्मात्रा कहते हैं। इनसे पृथ्वी आदि पाँच भूततत्त्व उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार एक प्रकृतिसे उपर्युक्त चौवीस तत्त्व उत्पन्न होते हैं। ये सभी तत्त्व अचेतन हैं। इनमें भिन्न पच्चीसवाँ पुरुष तत्त्व है, जो कि चेतन है। इस प्रकार सांख्यमतमें पच्चीस तत्त्व माने गये हैं। सांख्यमतमें यह सम्पूर्ण जगत् नित्य है। इस मतमें तीन प्रमाण माने गये हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम ॥२७३-२७७॥
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