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________________ श्रावकाचार-संग्रह आकुकर्म स षट्कर्मो शद्वान्नादिविवर्जकः । ब्रह्मसूत्री द्विजो भट्टो गृहस्थाश्रमसंस्थितः ॥२५८ भगवन्नामधेयास्तु द्विजा वेदान्तदर्शने । विप्ररोह जिशक्तो यथैते ब्रह्मवादिनः ॥२५९ चत्वारो भगवाः कुटीचर-बाहदको । हंसः परमहंसश्चाधिकोऽमीषु परः परः ॥२६० इति मीमांसकमतम् । अथ बौसमतम्बोटाना सुगतो देवो विश्वं च क्षणभङ्गरम् । आर्यसत्याख्यया तत्त्वचतुष्टयमिदं क्रमात् ॥२६१ दुःखमायतनं चैव ततः समुदयो मतः । मागं चेत्यस्य च व्याख्या क्रमेण भूयतामतः ॥२६२ दुःखं संसारिणः स्कन्धास्ते च पश्च प्रकोतिताः । विज्ञानं वेदना संज्ञा संस्कारो रूपमेव च ॥२६३ __ अयायतनानिपजेन्द्रियाणि शब्दाद्याः विषयाः पञ्च मानसम् । धर्मायतनमेतानि द्वादशायतनानि तु ॥२६४ अथ समृदयःरागादीनां गणो यस्मात्समुदेति गणो हृदि । आत्मात्मीयस्वभावाख्यो यस्मात्समुदयः पुनः ॥२६५ अथ मार्गःक्षणिकाः सर्वसंस्कारा इति वा वासना स्थिरा । स मार्ग इति विज्ञेयः स च मोक्षोऽभिधीयते ॥२६६ कर्ममीमांसा माननेवाले मीमांसक (यज्ञादि) आकुकर्मको मानते है । वह कर्म छह प्रकारका है। इस मतके साधु शूद्रोंके अन्न आदिके परित्यागी होते हैं, ब्रह्मसूत्र (यज्ञोपवीत) को धारण करते हैं और भट्टलोग गृहस्थाश्रममें रहते हैं ॥२५८॥ वेदान्त दर्शनमें द्विज अपना 'भगवन्' नाम धारण करते हैं, अर्थात् परस्परके व्यवहारमें वे एक दूसरेको 'भगवन्' कहकर सम्बोधित करते हैं। ये लोग ब्राह्मणके घरमें ही भोजन करते हैं। इसी प्रकार ब्रह्मवादी भी जानना चाहिए ॥२५९|| इतके मतमें चार भगवत्-प्ररूपित वेद ही आगम-प्रमाणके रूप में माने गये हैं। ये लोग कुटियोंमें रहते हैं और शरीर-शुद्धिके लिए अधिक जलका उपयोग करते हैं। कितने ही वेदान्ती तो जलमें ही खड़े रहते हैं। इनमें हंसवेषके धारक साधु श्रेष्ठ और उनसे भी परमहंस वेषके धारक साधु और भी अधिक श्रेष्ठ माने जाते हैं ॥२६०॥ अब बौद्धमतका वर्णन करते हैं-बौद्धोंका देव सुगत (बुद्ध) है, उनके मतानुसार यह समस्त विश्व क्षण-भंगुर है। उनके मतमें आर्यसत्य नामसे प्रसिद्ध चार तत्त्व माने गये हैं, जो क्रमसे इस प्रकार है-दुःख, दुःखका आयतन, समुदय और मार्ग। अब चारों आर्य सत्योंकी व्याख्या क्रमसे आगे सुनिये ॥२६१-२६२।। संसारी स्कन्ध दुःख कहलाते हैं। वे स्कन्ध पाँच कहे गये हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं-विज्ञान, वेदना, संज्ञा, संस्कार और रूप ॥६३।। अब आयतनोंका निरूपण करते हैं-पांच इन्द्रियाँ, उनके शब्द आदि पाँच विषय, मानस और धर्मायतन, ये बारह आयतन बौद्धमतमें कहे गये हैं ॥२६४।। अब समुदयका वर्णन करते हैं जिससे राग आदि विकारी भावोंका गण (समुदाय) हृदयमें उदयको प्राप्त होता है, वह मात्मा बीर आत्मीय स्वभाव नामक गण समुदाय कहा जाता है ।।२६५॥ अब मार्गका वर्णन करते हैं-'सभो संस्कार क्षणिक हैं' इस प्रकारकी जो वासना स्थिर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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