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________________ अष्टकर्मक्षयान्मोक्षोऽन्तर्भाव एषु कैश्चन । पुण्यस्य संवरे पापस्यात्रवे क्रियते पुनः ॥२१ लब्धानन्तचतुष्कस्य लोकाप्रस्थस्य चात्मनः । क्षीणाष्टकर्मणो मुक्तिनिव्यावृत्तिजिनोविता ॥२५० लुञ्चिताः पिच्छिकाहस्ता पाणिपात्रा दिगम्बराः । ऊ शिनो गृहे दातुद्वितीयाः स्युजिनर्षयः ॥२५१ भुङ्क्ते न केवली न स्त्री मोक्षगेति दिगम्बराः । प्राहुरेषामयं भेदो महान् श्वेताम्बरैः समम् ॥२५२ इति जैनम् । अथ मीमांसकमतम्मीमांसको द्विधा कर्म-ब्रह्ममीमांसकत्वतः । वेदान्ती मन्यते ब्रह्म कम भट्ट-प्रभाकरौ ॥२५३ नवतत्त्वदेशको देवो देवस्तत्वोपदेशकः । पूज्यो वह्निः प्रमाणानां प्रमाणमधुनोच्यते ॥२५४ प्रत्यक्षमनुमानं च वेदश्चोपमया सह । अर्थापत्तिरभावश्च भट्टानां षट् प्रमाण्यसौ ॥२५५ प्रभाकरमते पञ्चैतान्येवाभाववर्जनात् । अद्वैतवादवेदान्ती प्रमाणं तु यथा तथा ॥२५६ सर्वमेतदिदं ब्रह्म वेदान्तेऽद्ध तवादिनाम् । आत्मन्येव लयो मुक्तिर्वेदान्तिकमते मता ॥२५७ आस्रव कहते हैं, और कर्मों के निरोधको संवर कहते हैं। कर्मोके आत्माके साथ बँधने को बन्ध कहते है, कर्म-बन्धके वियोजनको निर्जरा कहते हैं, और आठों कर्मोक क्षयको मोक्ष कहते हैं। कितने ही आचार्य पुण्यका संवरमें (?) और पापका आस्रव तत्त्वमें अन्तर्भाव करते हैं, अतः वे सात तत्त्वोंको मानते हैं ।।२४८-२४९।। जिसने अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त सुख और अनन्तवीर्य इस अनन्तचतुष्कको प्राप्त कर लिया है, जो लोकके अग्रभागमें विराजमान है और जिसके आठों कर्मोका क्षय हो गया है । ऐसे निवृत्त आत्माके जिनदेवने मुक्ति कही है ॥२५०॥ जो केश-लोंच करते हैं, पिच्छिकाको हाथमें धारण करते हैं, पाणिपात्रमें भोजन करते हैं, दिशा ही जिनके वस्त्र हैं अर्थात् नग्न रहते हैं, दातारके घरपर खड़े-खड़े ही भोजन करते हैं ऐसे जैन-ऋषि जिस मतमें दूसरे गुरु माने गये हैं ।।२५१।। केवली भगवान् भोजन नहीं करते हैं, और स्त्री मोक्ष नहीं जाती है ऐसा दिगम्बर कहते हैं और यही उनका श्वेताम्बरोंके साथ महान् भेद है ।।२५२।। अब मीमांसक मतका निरूपण करते हैं कर्ममीमांसा और ब्रह्ममीमांसाके भेदसे मीमांसक दो प्रकारके हैं, इनमेंसे वेदान्ती लोग ब्रह्मको मानते हैं, और भट्ट प्रभाकर कर्मको मानते हैं ॥२५३।। भट्ट लोग तो तत्त्वके उपदेशक देवको अपना देव मानते हैं, अग्निको पूज्य मानते हैं और छह प्रमाण मानते हैं। अब प्रमाणको कहते हैं ॥२५४॥ प्रत्यक्ष, अनुमान, वेद (आगम) उपमान, अर्थापत्ति और अभाव । भट्ट लोगोंने ये छह प्रमाण माने हैं ।।२५५॥ प्रभाकरके मतमें उक्त छह प्रमाणोंमेंसे अभाव प्रमाणको छोड़कर शेष पांच प्रमाण माने गये हैं। किन्तु अद्वैतवादी वेदान्ती जिस किसी प्रकारके ब्रह्मके साधन करनेवाले प्रमाणोंको मानता है ।।२५६।। अत वादियोंके वेदान्त मतमें यह सर्व दृश्यमान सारा संसार परब्रह्मरूप ही है। (उसके सिवाय और कुछ भी वास्तविक पदार्थ नहीं है ।) तथा वेदान्तियोंके मतमें आत्मामें लयहोनेको ही मुक्ति मानी गई है ।।२५७।। । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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