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________________ श्रावकाचार-संग्रह वथ षड्दर्शनविचार क्रमः-. जैनं मीमांसकं बौद्धं साङ्ख्यं शेवं च नास्तिकम् । स्व-स्वतकविभेवेन जानीयाद्दर्शनानि षट् ॥२४१ अथ जैनम्बल-भोगोपभोगानामुभयोनिलाभयोः । नान्तरायस्तथा निद्रा भीरज्ञानं जुगुप्सनम् ॥२४२ हासो रत्यरतो रागद्वेषाविरतिः स्मरः । शोको मिथ्यात्वंमेतेष्टादश दोषा न यस्य सः ॥२४३ जिनो देवो गुरुः सम्यक् तत्त्वज्ञानोपदेशकः । ज्ञानदर्शनचारित्राण्यपवर्गस्य वर्तनी ॥२४४ स्याद्वादस्य प्रमाणे द्वे प्रत्यक्षमनुमापि च । नित्यानित्यं जगत्सर्व नव तत्त्वानि सर्वथा ॥२४५ जीवाजीवो पुण्यपापे आस्रवः संवराणि च । बन्धो निर्जरणं मुक्तिरेषां व्याख्याऽधुनोच्यते ॥२४६ चेतनालक्षणो जीवः स्यावजीवस्तदन्यकः । सत्कर्मपुद्गलाः पुण्यं पापं तस्य विपर्ययात् ॥२४७ मानवः कर्मसम्बन्धः कर्मरोधस्तु संवरः । कर्मणां बन्धनाद बन्धो निर्जरा तद्वियोजनम् ॥२४८ प्रभाव रहता है, इसका कुछ भी वर्णन नहीं किया है। पर सर्प-विषके दूर करनेकी औषधियोंका विस्तारसे वर्णन किया है। किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थमें सर्वत्र सहजमें सुलभ पुनर्नवा, सुदर्शना, तुलसीको जड़को जलमें पीसकर पीनेका और अगस्त्यके पत्रोंको पीसकर सूघनेका ही उल्लेख किया है । __ इसके अतिरिक्त उन्होंने एक और आध्यात्मिक प्रयोग विष दूर करने का उपाय ऊपर २३७ वें श्लोकमें बताया है कि शरीरके जिस अमृत स्थानपर सर्पने काटा हो उसपर चित्त एकाग्रकर आत्म चिन्तन करनेसे सर्पविष दूर हो जाता है। इसी प्रकार एक शारीरिक प्रयोग भी बताया है कि जिह्वाके अग्रभागको तालुके साथ संयोग करनेपर उससे जो रस झरे, उससे सर्प दष्ट अंग को बार-बार लेप करनेसे भी सर्प विष दूर हो जाता है। सर्प-चिकित्सामें ये दोनों ही उनके अनुभूत प्रयोग ज्ञात होते हैं। अब षड् दर्शनोंके विचारका क्रम प्रस्तुत किया जाता है जैन, मीमांसक, बौद्ध, सांख्य, शैव और नास्तिक इन छह दर्शनोंको अपने-अपने तर्कके भेदसे भिन्न-भिन्न जानना चाहिए ।।२४१॥ उनमेंसे सर्वप्रथम क्रम-प्राप्त जैन-दर्शनका वर्णन करते हैं जिस महापुरुषके बल (वीर्य) भोग, उपभोगका और दान, लाभ इन दोनोंका अन्तराय न हो, अर्थात् पांचों अन्तरायकर्मोंका जिसने क्षय कर दिया है, तथा निद्रा, भय, अज्ञान, जुगुप्सा, हास्य, रति, अरतिः राग, द्वेष, अविरति (बुभुक्षा , काम विकार, शोक, और मिथ्यात्व ये अठारह दोष न हों, ऐसा जिनेन्द्र जिस मतका देव है, तथा सम्यक् प्रकारसे तत्त्वोंका उपदेश करनेवाला और ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप मोक्षका बतानेवाला, जिस मतमें गुरु माना गया है, और स्याद्वादमय धर्मका प्ररूपक जिसका शास्त्र है, ऐसे जैन दर्शनमें प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो प्रमाण माने गये हैं। जैनदर्शनमें सर्व जगत्को कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य माना गया है। इस मतमें नौ तत्त्व कहे गये हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, बन्ध, निर्जरा और मोक्ष। अब इनको व्याख्या की जाती है ॥२४२-२४६॥ ज्ञान-दर्शनरूप चेतना लक्षण वाला जीव है। इससे भिन्न अर्थात् चेतना-रहित अजीव है। सत्कर्मरूप पुद्गल पुण्य है और इस विपरीत असत्कर्मरूप पुद्गल पाप है ।।२४७।। कर्म-सम्बन्धको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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