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________________ कुन्दकुन्द श्रावकाचार प्रस्तुत ग्रन्थोक्त नामोंके साथ इन नामोंमें ७ नाम तौ ज्योंके त्यों एक ही है। शेषके स्थान पर प्रस्तुत ग्रन्थमें अनन्त नाम है। किन्तु दोनोंके जो स्वरूप आदिका वर्णन अग्नि पुराण में किया गया है। वह संक्षेपसे केवल ३६ श्लोकोंमें है, जिन्हें तुलनाके लिए यहाँ पाद-टिप्पणमें दिया है। पर प्रस्तुत ग्रन्थकारने जांगुलि प्रकरणका वर्णनका ९६ श्लोकोंमें और बहुत ही स्पष्ट रूपके किया गया है। तुलनात्मक दृष्टिसे देखने पर यह बात हृदय पर सहजमें अंकित हो जाती है कि ग्रन्थकारके सामने उक्त तीनों ग्रन्थोंके अतिरिक्त सर्प-चिकित्सा-विषयक और भी कोई विस्तृत ग्रन्थ रहा है और वे इस विषयके विशिष्ट अभ्यासी रहे है। यही कारण है कि उन्होंने सप्ताहके सातों वारोंमेंसे किस दिन किस समय और कितनी देर तक किस जातिके सर्पका विष दष्ट व्यक्ति पर प्रभावी रहता है, कितने समय तक सर्प-दष्ट व्यक्ति मूच्छित रहता है और कितना समय उसे स्वास्थ्य-लाभ करने में लगता है, इसका विगतबार बहुत स्पष्ट वर्णन अति सरलरूपसे किया है । आयुर्वेदके उक्त दोनों ग्रन्थोंमें किस नक्षत्र, तिथि और वारमें काटनेपर कितने समय तक विषका तदन्वयाः पञ्चशतं तेभ्यो जाता असंख्यकाः । फणिभण्डलिराजील-वातपित्तकफात्मकाः ॥४॥ व्यन्तरा दोष मिश्रास्ते सर्पा दर्वीकराः स्मताः । .... .. .. ... ॥५॥ रथाङ्ग-लाङ्गलश्छत्र-स्वस्तिकाङ्कशधारिणः । गोनसा मन्दगा दीर्घा मण्डलैर्विविधैश्चिरता ॥६॥ षण्माषान् मुच्यते कृत्ति जीवेषष्टिसमाद्वयम् । नागाः सूर्यादिवारेशाः सप्ता उक्ता दिवा निशि ॥१३॥ स्वेषां षट् प्रतिवारेषु कुलिकः सर्वसन्धिषु । शंखेण वा महाब्जेन सह तस्योदयोऽथवा ॥१४॥ द्वयोर्वा नाडिका मंत्र-मंत्र कुलिकोदयः । दुष्टः स कालः सर्वत्र सर्वदेशे विशेषतः ॥१५॥ कृत्तिका भरणी स्वाती मूलं पूर्वात्रयाश्विनी । विशाखार्दा मघाश्लेषाचित्राश्रवणरोहिणी ॥१६॥ हस्ता मन्दकुजौ वारी पञ्चमी चाष्टमी तिथिः । षष्ठी रिक्ता शिशा निन्द्या पञ्चमी च चतुर्दशी ॥१७ सन्ध्याचतुष्टयं दुष्टं दग्धयोगाश्च राशयः । एकद्विवहवो दंशा दष्टविद्धञ्च खण्डितम् ॥१८॥ अदंशमवगुप्तं स्याद् दंशमेव चतुर्विधम् । त्रयो द्वयेकक्षता दंशा वेदना रुधिरोल्वणः ॥१९।। नक्तन्त्वकाघ्रिकूर्माभाः दंशाश्च मभचोदिताः । दोहीपिपीलिकास्पर्शी कण्ठशोथरुजान्विता ॥२०॥ सत्तोदो ग्रन्थितो दंशः सविषो न्यस्तनिर्विषः । देवालये शून्यगृहे वल्मीकोद्यान कोटरे ॥२१॥ रथ्यासन्धौ श्मशाने च नद्याञ्च सिन्धुसङ्गमे । द्वीपे चतुष्पथे सौधे गृहऽब्जे पर्वताग्रतः ॥२२॥ बिलद्वारे जीर्णकूपे जीर्णवेश्मनि कुडयके शिग्रुश्लेष्मातकाक्षषु जम्बूडुम्बरणेषु च ॥२३॥ वटे च जीर्णप्राकारे खास्यहृत्कक्षजत्रुणि । तालो शंखे गले मूनि चिषुके नाभिपादयोः ॥२४॥ दंशोऽशुभः शुभो दुतः पुष्पहस्तः सुवाक् सुधीः । लिङ्गवर्णसमानश्च शुक्लवस्त्रोऽमलः शुचिः ॥२५॥ अनपरद्वारगतः शस्त्री प्रमादी भूगतेक्षणः । विवर्णषासा पाशादिहस्तो गद्गदवर्णभाक् ॥२६॥ शुष्ककाष्ठाश्रितः खिन्नस्तिलाक्तककरांशक्रः । आर्द्रवासाः कुष्णरक्तपुष्पयुक्तशिरोरुहः ॥२॥ कुचमर्दी नखच्छेदी गुदस्पृक् पादलेखकः । केशमुञ्ची तृणच्छेदी दुष्टा दूता तथैकशः ॥२८॥ इडान्या वा वहेद ट्रेधा यदि दूतस्य चात्मनः । आम्यां द्वाभ्यां पुष्टयास्मान् विद्यास्त्रीपुन्नपुंसकान् ।।२९।। दूतः स्पृशति यद्गात्रं तस्मिन् दंशमुदाहरेत् । दूताघ्रिचलनं दुष्टमुत्थितिनिश्चिलाशुभा ॥३०॥ जीवपार्वे शुभी दूतो दुष्टोऽन्यत्र समागतः । जीवो गतागतर्दृष्टः शुभो दूतनिवेदने ॥३१॥ दूतस्य वाक्प्रदुष्टा सा पूर्वा मजार्धनिन्दिता । विभक्तस्तस्य वाक्यानौविष-निविषकालता ॥३२।। (अग्निपुराण अध्याय २९४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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