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________________ २४ श्रावकाचार-संग्रह सुधास्थानेषु नैव स्यात्कालदंशोऽपि मृत्यवे । विषस्थानेषु दंशस्तु प्रशस्तोऽप्याशु मृत्यवे ॥२३५ सुषाकालस्थितान् प्राणान् ध्यायन्नात्मनि चात्मना । निविषत्वं वयस्तम्भं कीति चाप्नोति दष्टकः ॥२३६ जिह्वायास्तालुनो योगादमृतश्रवणे तु यत् । विलिप्तस्तेन वंशः स्यान्निविषं क्षणमात्रतः ॥२३७ पुनर्नवायाः श्वेताया गृहीत्वा मूलमम्बुभिः । पिष्टपानं प्रदातव्यं विषार्तस्यात्तिनाशनम् ॥२३८ कन्दः सुदर्शनायाश्च जलैः पिष्ट्वा निपीयते । अथवा तुलसीमूलं निविषत्वविधित्सया ॥२३९ जले घृष्टैरगस्त्यस्य पत्रैनस्ये कृते सति । राक्षसादिकदोषेण विषेण च प्रमुच्यते ॥२४० स्थानों पर काल-दंश (भयंकर काले साँपका काटना) भी मृत्युके लिए नहीं होता है। किन्तु विषस्थानों (मर्मस्थलों) पर प्रशस्त भी दंश (भद्र सर्पका काटना) शीघ्र मृत्युके लिए होता है ।।२३५।। __ अमृत काल-स्थित प्राणोंको अपनी आत्मामें अपनी आत्माके द्वारा ध्यान करता हुआ सर्प-दष्ट व्यक्ति निर्विषताको वय (जीवन) की स्थिरताको, और कीर्तिको प्राप्त करता हैं ॥२३६।। जिह्वाका तालुके साथ संयोग होने पर उससे जो अमृत झरता हैं, यदि उससे दंश स्थान विलिप्त हो जावे, तो व्यक्ति क्षणमात्रमें निर्विष हो जाता है ॥२३७।। भावार्थ-इन दोनों श्लोकोंमेंसे प्रथम श्लोकके द्वारा आत्म-साधनाकी महत्तासे विषके दूर होनेका उपाय बताया गया है और दूसरे श्लोकसे द्वारा जिह्वा-ताल संयोगसे झरनेवाले रसके द्वारा विष दूर होनेका उपाय बताया गया है। अब विष दूर करनेके बाह्य उपचारको बतलाते हैं श्वेत पुनर्नवाके मूलभाग (जड़) को लेकर जलके साथ पीसकर पिलाना चाहिए। यह औषधि सर्प-विषसे पीड़ित व्यक्तिकी पीड़ाका नाश करती है ॥२३८॥ सुदर्शनाका कन्द जलके साथ पीसकर पीना चाहिए। अथवा विष दूर करनेकी इच्छासे तुलसीको जड़को भी जलमें पीसकर पीना या पिलाना चाहिए ॥२३९|| अगस्त्य वृक्षके पत्तोंको जलमें घिसकर या पीसकर नाकसे सूंघनेपर या सुंघानेपर विष-पीड़ित व्यक्ति विषसे विमुक्त हो जाता है और यदि कोई राक्षस-प्रेतादिके दोषसे पीड़ित हो तो उससे भी विमुक्त हो जाता है ॥२४०॥ विशेषार्थ-प्रस्तुत सर्प-विषके प्रसंगमें ग्रन्थकारने जिन आठ प्रकारके सर्पोका उल्लेख किया है, उनके नाम इस प्रकार है-१ अनन्त, २. वासुकी, ३. तक्षक, ४. कर्कट, ५. पद्म, ६ महापद्म, ७. शंख और ८. कुलिक या राहु । सुश्रुतसंहिता और अष्टाङ्गहृदय जैसे आयुर्वेदके महान् ग्रन्थोंमें नागोंके तीन भेद ही बतलाये गये हैं-१. दर्वीकर, २. मण्डली और ३. राजीमान्' । इनका संक्षेपमें स्वरूप बताकर कहा गया है कि इन भूमिज सर्पो के अनेक भेद होते है। अग्निपुराणमें सर्पो के सात भेद बताये गये हैं, जिनके नाम इस प्रकार है-१. शेष, २. वासुकि, ३. तक्षक, ४. कर्कट, ५. अब्ज, ६. महाब्ज, ७. शंख और ८. कुलिक । १. दर्वीकरा मण्डलिनो राजीवन्तश्च पन्नगाः । त्रिधा समासतो भौमा भिद्यन्ते ते त्वनेकधा ॥१॥ (अष्टाङ्गहृदय अ० ३६) २. शेष वासुकि-तक्षाख्याः कर्कटोऽब्जो महाम्बुजः । शंखपालश्च कुलिक इत्यष्टो नागवर्यकाः ॥२॥ दशाष्ट पञ्च त्रिगुणशत मूर्द्धान्वितो क्रमात् । विप्रो नृपो विशो शूद्री द्वौद्वौ नागेषु कीत्ति तो ॥३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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