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________________ कुन्दकुन्द श्रावकाचार विषं दंशे द्विपञ्चाशन्मात-दंष्ट्र ततोऽलिके । नेत्रयोवंदने नाडीष्वथ धातुषु सप्तसु ॥२२४ रसस्थं कुरुते कण्डू रक्तस्थं बाह्यतापकृत् । मांसस्थं जनयेच्छर्दी मेदस्थं हन्ति लोचने ॥२२५ अस्थिस्थं मर्मपोडां च मज्जस्थं दाहमान्तरम् । शुक्रस्थमानयेन्मृत्युं विषं धातुक्रमावहो ॥२२६ निराकतुं विषं शक्यं पूर्वस्थाने चतुष्टये । अतः परमसाध्यं तु कष्टं कष्टतरं मृतिः ॥२२७ आग्नेये स्याद् विषे तापो जडता वारुणाधिके । प्रलापो वायवीये तु त्रिविधं विषलक्षणम् ॥२२८ निक्षेपे मारिचे चूर्णे दृशो यदि पयः क्षरेत् । तदा जीवति दष्टः सन्नन्यथा तु न जीवति ॥२२९ पादाङ्गष्ठपतत्पृष्ठे गुल्फे जानुनि लिङ्गके । नाभौ हृदि कुचे कण्ठे नासा दृग-श्रुतिषु भ्रुवोः ॥२३० शङ्खे मूनि क्रमात्तिष्ठेत्पीयूषस्य कलान्वहम् । शुक्ल प्रतिपदःपूर्व कृष्ण पक्षे विपर्ययः ॥२३१ सुधाकलास्मरो जीवस्त्रयाणामेकवासिता । पुंसो दक्षिणभागे स्याद्वामे भागे तु योषितः ॥२३२ सुधा-स्थानाद्विषस्थानं सप्ताहं ज्ञेयमन्वहम् । सुधा-विषस्थानमर्दो विषघ्नो विषवृद्धिकृत् ॥२३३ स्त्रियोऽप्यवश्यं वश्याः स्युः सुधास्थानविमर्दनात् । स्पृष्टा विशेषाद्वश्याय गुह्यप्राप्ता सुधाकला ॥२३४ जिसके शवसे विच्छू पैदा होते हैं ऐसी नागिनके काटनेपर विष दोनों नेत्रोंमें, मुखपर नाड़ियोंपर और सातों ही धातुओंपर बावन घड़ी तक रहता है ।।२२४।। रसमें स्थित विष शरीरमें खुजली करता है, रक्त में स्थित विष शरीरके बाहिरी भागपर ताप करता है, मांसमें स्थित विष वमन कराता है, मेदमें स्थित विष नेत्रोंका विनाश करता है ॥२२५॥ हड्डोपर स्थित विष मर्मस्थानपर पीड़ा करता है, मज्जामें स्थित विष अन्तर्दाह करता है और शुक्र (वीर्य) में स्थित विष मृत्युको लाता है। इस प्रकारसे अहो पाठको, शरीरकी सातों धातुओंपर विषका क्रम जानना चाहिए ॥२२६॥ उक्त सात धातुरूप स्थानोंमेंसे प्रारम्भके चार स्थानोंपर व्याप्त विषका निराकरण करना शक्य है। किन्तु अन्तिम तीन धातु-स्थानों पर व्याप्त विष कष्ट-साध्य, कष्टतर-साध्य और असाध्य है अर्थात् शुक्र-व्याप्त विषको दूर नहीं किया जा सकता। उसमें तो मरण निश्चित है ॥२२७|| आग्नेय विषमें शरीरके भीतर ताप होता है, वारुण विषकी अधिकता होनेपर शरीरमें जड़ता या शून्यता आती है और वायवीय विषमें सर्प-दष्ट व्यक्ति प्रलाप करता है ॥२२८॥ सर्पदष्ट पुरुषकी आँखोंमें मिर्चीका चूर्ण डालने पर यदि पानी (आँसू) बहे, तो वह जी जाता है और यदि पानी न निकले तो वह नहीं जीता है ।।२२९।। ___ पीछे मुड़ते पैरके अंगूठेमें, गुल्फ, जानु, लिंग, नाभि, हृदय, कुच, कण्ठ, नासा, नेत्र, कर्ण, भौंह, शंख और मस्तक पर शुक्ल पक्षमें प्रतिपदासे लेकर तिथि क्रमसे प्रतिदिन अमृतकी कला रहती है। कृष्ण पक्षमें इससे विपरीत अमृत कलाका निवास जानना चाहिए ॥२३०-२३१।। सुधा(अमृत) कला, स्मर (कामदेव) और जीव इन तीनोंका एक स्थान पर निवास होता है। इनका निवास पुरुषके दक्षिण भागमें और स्त्रीके वाम भागमें रहता है ॥२३२॥ सुधा स्थानसे विषस्थान सात दिन (?) तक प्रतिदिन जानना चाहिए । सुधास्थानका मर्दन करने पर विषका विनाश होता है और विषस्थानका मर्दन करने पर विष को और अधिक वृद्धि होती है ॥२३३।। उक्त अमृत स्थानोंके मर्दनसे स्त्रियाँ भी अवश्य ही अपने वशमें हो जाती हैं। किन्तु गुह्यस्थानको प्राप्त अमृतकला यदि स्पर्श की जाती है तो स्त्रियाँ विशेष रूपसे अपने वशमें होती हैं ॥२३४॥ इन सुधा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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