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________________ श्रावकाचार-संबह शेवाः पाशुपताश्चैव महाव्रतपरास्तथा । तुर्याः कालमुखा मुख्या भेवाश्वते तपस्विनः ।।२९७ इति शेवमतम् । अथ नास्तिकमतम्पञ्चभूतात्मकं वस्तु प्रत्यक्षं च प्रमाणकम् । नास्तिकस्य मते नान्यदात्मा मन्त्रं शुभाशुभम् ॥२९८ प्रत्यक्षमविसंवादिज्ञानमिन्द्रियगोचरम् । लिङ्गतोऽनुमितिषू मादिव वह्नरवस्थितिः ।।२९९ बनुमानं त्रिषा पूर्वशेषं सामान्यतो यथा । वृष्टेः शस्यं नदीपूराद वृष्टिरस्ताद रवर्गतिः॥३०० ख्यातं सामान्यतः साध्यसाधनं चोपमा यथा। . स्याद गोवद-गवयः सास्नादिमत्त्वाच्चोभयोरपि ॥३०१ बागमश्चाप्तवचनं स च कस्यापि कोऽपि च । वाचा प्रतीतौ तत्सिद्धौ प्रोक्तार्थापत्तिरुत्तमैः ॥३०२ बटुः पोनोऽह्नि नाश्नाति रात्रावित्यर्थतो यथा । पञ्चप्रमाणासामर्थ्य वस्तुसिद्धिरभावतः ॥३०३ स्थापितं वादिभिः स्वं स्वं मतं तत्त्वप्रमाणतः । तत्त्वं सपरमार्थेन प्रमाणं तच्च साधकम् ॥३०४ जटा और यज्ञोपवीत धारण करना है। वे मंत्र और आचार आदिके भेदसे चार प्रकारके होते हैं ॥२९॥ उन तपस्वियोंके वे चार मुख्य भेद इस प्रकार हैं-शैव, पाशुपत, महाव्रत-धारक और कालमुख ॥२९॥ अब नास्तिक मतका वर्णन करते हैं-नास्तिकके मतमें पृथिवी, जलादि पंचभूतात्मक वस्तु ही तत्त्व है। एक प्रत्यक्षमात्र प्रमाण है। आत्मा नामका कोई भिन्न पदार्थ नहीं है और न शुभ-अशुभरूप कोई मंत्र है ।।२६८॥ इन्द्रिय-गोचर अविसंवादी ज्ञानको प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं। लिंग ( साधन ) से लिंगी ( साध्य ) के ज्ञानको अनुमान कहते हैं। जैसे कि धूमसे अग्निका ज्ञान होता है । शवमतमें अनुमान तीन प्रकारका माना गया है-पूर्ववत्-अनुमान, शेषवत्-अनुमान और सामान्यतो दृष्टअनुमान। इनके उदाहरण क्रमसे इस प्रकार हैं-वर्षा होनेसे धान्यकी उत्पत्तिका ज्ञान होना पूर्ववत्-अनुमान है। नदीमें आये हुए जल-पूरके देखनेसे ऊपरी भागमें वर्षा होनेका ज्ञान होना शेषवत्-अनुमान है। तथा सूर्यके अस्त होनेसे उसकी गतिका ज्ञान होना सामान्यतो दृष्ट अनुमान है। इस प्रकार किसी लिंग विशेषसे साध्यके साधनको अनुमान कहा गया है। गोके सदश गवय होता है, क्योंकि दोनोंके सास्ना (गल-कम्बल) आदि सदृश पाई जाती है, इस प्रकार सादृश्यविषयक ज्ञानको उपमान प्रमाण कहते हैं । आप्त पुरुषके वचनको आगम प्रमाण कहते हैं। वह आप्त पुरुष कोई भी व्यक्ति हो सकता है, जिसके कि वचनसे यथार्थ अर्थका बोध होवे । वचनके द्वारा तत्सिद्ध अर्थकी प्रतीति होनेको उत्तम पुरुषोंने अापत्ति नामका प्रमाण कहा है। जैसे कि 'यह पीन (मोटा) वटु दिनमें नहीं खाता है' ऐसा कहने पर यह बात अर्थात् सिद्ध होती हैं कि वह रात्रिमें खाता है जिस बातके सिद्ध करनेमें प्रत्यक्ष आदि पाँचों प्रमाणोंकी सामर्थ्य नहीं होती है, वहां पर अभाव प्रमाणसे वस्तुको सिद्धि होती है ॥२५९-३०३॥ इस प्रकार विभिन्न मत-वादियोंने तत्त्वोंको प्रमाणतासे अपने-अपने मतको स्थापित किया है। जो वस्तु प्रमाण-सिद्ध वास्तविक है, वह तत्त्व कहलाता है। उस तत्त्वका साधक प्रमाण कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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