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________________ सञ्चरत्कोटिकास्पृष्ट इषुवेधीव वाहकृत् । कण्डूमान सविषो नेयो दंशोऽन्यो निर्विषः पुनः ॥१५८ तैलाक्तो मुक्तकेशश्च सशस्त्र प्रस्खलद्वचाः । ऊवीकृतकरद्वन्द्वो रोगप्रस्तो विहस्ततः ॥१५९ रासभं करभं मत्तमहिषं चाधिरूढवान् । अपद्वारसमायातः कन्दिशीकश्चलेक्षणः ॥१६० एकवस्त्रो विवस्त्रश्च वृत्तस्थो जीणंचीवरः । वाहनोविकृतः कुद्धो दूतो नूतनजन्मने ॥१६१ स्थिरो मधुरवाक पुष्पोऽक्षतपादिशि स्थितः । एक जातिवतो दूतो दूतो दूरविषव्ययः ॥१६२ विषमः शस्यते दूतः स्त्री स्त्रीणां तु नरो नणाम् । एवं सर्वेषु कार्गेषु वर्जनीयो विपर्ययः ॥१६३ बष्टस्य नाम प्रथमं गृह्वस्तदनु मन्त्रिणः । वक्ति दूतो यमाहूते दष्टोऽयमुच्यतामिति ॥१६४ दूतस्य यदि पादः स्याद्दक्षिणोऽग्रे स्थिरस्तदा। पुमान् दष्टोऽथ वामे तु स्त्री दष्टेत्यपि निश्चयः ॥१६५ जानिनोऽपस्थितो दूतो यदङ्गं किमपि स्पृशेत् । तस्मिन्नङ्गस्ति दंशोऽपि ज्ञानिना ज्ञेयमित्यपि ॥१६६ और शुष्क हो, तो ये चिह्न प्राण-संहारक होते है ॥१५॥ जहाँपर काटा गया है वह स्थान चलती हई कीड़ियोंके स्पर्शके समान प्रतीत हो, अथवा बाण-वेधके समान दाह करनेवाला हो और खुजलाता हो तो उस दंशको विषयुक्त जानना चाहिए। इससे भिन्न देशको निर्विष जानना चाहिए ॥१५८॥ सर्प-दष्ट पुरुषका दूत (समाचार लानेवाला पुरुष) तेलसे लिप्त शरीर हो, विखरे केशवाला हो, शस्त्र-युक्त हो, स्खलित वचन बोलनेवाला हो, दोनों हाथोंको ऊपर किये हुए हो, रोग-प्रस्त हो, हाथमें दण्ड आदि लिए हो, गर्दभ, ऊंट या मद-मत्त भैसे पर चढ़ा हुआ और घरके पिछले द्वारसे भाया हो, कन्दिशीक ( सर्व दिशाओंको देख रहा ) हो, चंचल नेत्र हो, एक वस्त्रधारी हो अथवा वस्त्र-रहित हो, वृत्तस्थ ( व्यापार-चर्चामें संलग्न । हो, जीर्ण-शीर्ण वस्त्र पहिने हो, वाहनी-विकृत हो, (विकृत टूटी-फूटी गाड़ीपर बैठकर आया हो, अथवा जिसके शरीरकी वाहिनी (शिराएं) उभरी हुई हों) और क्रोध युक्त हो, तो ऐसा दूत सर्प-दष्टा पुरुषके नवीन जन्मके लिए सूचक है अर्थात् वह सर्प-दष्ट पुरुष मर जायगा ।।१५९-१६१।। ___यदि सर्प-दष्ट पुरुषका दूत स्थिर चित्त हो, मधुर वचन बोलनेवाला हो, पुष्प या अक्षत हाथमें लिये हुए हो, दिशामें अवस्थित हो, एक जातिके व्रतवाला हो, (वर्णके या वैद्यके समान व्यवसायी हो) तो वह दूत सर्प-दष्ट पुरुषको व्यथाको दूर करनेका सूचक है ॥१६२॥ विषम दूत प्रशंसनीय होता है अर्थात् सर्प-दष्ट पुरुषोंका दूत स्त्री और स्त्रियोंका दूत मनुष्य अच्छा माना जाता है। इसी प्रकार सर्व कार्यों में विपर्यय वर्जनीय है ।।१६३॥ सर्प-दष्ट पुरुषका नाम पहिले और मंत्रज्ञ पुरुषका नाम उसके पीछे लेता हुदा दूत यदि बोलता है तो 'यमराजके द्वारा बुलाये जाने पर यह अमुक व्यक्ति डसा गया है। ऐसा कहना चाहिए ॥ दूतका यदि दक्षिण पाद बागे और स्थिर हो तो 'पुरुष डसा गया है। ऐसा निश्चय करना चाहिये। यदि दूतका वाम पाद आगे और अस्थिर हो तो स्त्री डसी गई है, ऐसा भी निश्चय करना चाहिए ॥१६५॥ मंत्र-ज्ञाता पुरुषके बागे स्थित दूत जिस अंगका कुछ भी स्पर्श करे तो 'उस अंगमें इसा है' ऐसा भी ज्ञानी पुरुषको जानना चाहिए ॥१६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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