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श्रावकाचार-संग्रह ते देवा देवतास्तास्ते गुणज्ञा मन्त्रपाठकाः । अङ्गवा अपि ते धन्या यैस्त्राणं प्राणिनां विषात् ॥१४७ विषार्तस्याङ्गिनः पूर्व विमृश्यं काललक्षणम् । अपरं तज्जीवितव्यस्य चिह्न तदनु मन्त्रिणा ॥१४८ वारस्तिथि-भ-दिग्दंशा दूतो मर्माणि दृष्टकः स्थानं हं (?) प्रवाराद्याः कालाकालनिवेदकाः ॥१४९ भोमभास्करमन्दानां दिने सन्ध्याद्वये तथा । सङ्क्रान्तिकाले दष्टे हि कीडन्ति तु सुरस्त्रियः ॥१५० पञ्चमी षष्ठिकाष्टभ्यो नवमी च चतुर्दशी। अमावास्याप्यवश्या स्याद् दष्टानां मृतिहेतवः ॥१५१ मोनचापद्वये कुम्भवृषयोः कर्कटाजयोः । कन्यामिथुनयोः सिंहालिनो मृततुलाख्ययोः ॥१५२
एकान्तरा द्वितीयाद्या दग्धाः स्युस्तिथयः क्रमात् ।
सति चन्द्रेऽमीषु दष्टानां भवेज्जीवितसंशयः ॥१५३ मूलाश्लेषा मघा पूर्वात्रयं भरणिकाश्विनी । कृतिकाा विशाखा च रोहिणी दष्टमृत्युदा ॥१५४
नैऋत्याग्नेयिका याम्या दिशस्तिस्रो विवर्जयन् ।
अन्यदिग्भ्यः समायातो दष्टो जीवस्य संशयः ॥१५५ स्वपयः-शोणितादश्रचत्वारो युगपद्यदि । एको वा शोफवत्सूक्ष्मो दश आवर्तसन्निभः ॥१५६ वंशः काकपदाकारो रक्तवाही सगतकः । रेखः श्यामलः शुष्कः प्राणसंहारकारकः ॥१५७ डसते (काटते) हैं ॥१४६।। किन्तु वे देव, वे देवता, वे गुणीजन, वे मंत्रके पाठी पुरुष और वे अंगके . ज्ञाता मनुष्य धन्य हैं जो कि विषसे पीड़ित प्राणियोंकी रक्षा करते हैं ।।१४७॥
___ सर्व प्रथम सर्प-विषके दूर करनेवाले मंत्रज्ञ पुरुषको विषसे पीड़ित पुरुषके मृत्यु-कालके लक्षणोंका विचार करना चाहिए। तत्पश्चात् उसके जीवितव्यके अन्य चिह्नोंका विचार करना चाहिए ।।१४८॥ पुनः मंत्रज्ञ पुरुषको सर्प के द्वारा काटे गये दिनका, तिथिका, नक्षत्रका, दिशाका, दंशका, दूतका और मर्मस्थानका विचार करना चाहिए। क्योंकि ये तिथि वार आदिक काल
और अकालके निवेदक (सूचक) होते हैं ॥१४९।। मंगल, रवि और शनिवारके दिनमें, प्रातः और सायंकाल इन दोनों सन्ध्याओंमें, तथा संक्रान्ति-कालमें साँपके डसनेपर देवाङ्गनाएँ क्रीड़ा करती हैं, अर्थात् उक्त समयोंमें काटे हुए पुरुषको कोई भी नहीं बचा सकता है ।।१५०॥ पंचमी, षष्ठी, अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी और अमावस्या ये तिथियाँ अवश्य हैं, अर्थात् इन तिथियोंमें काटे गये पुरुषको बचाना मंत्रज्ञ पुरुषके वशमें नहीं है। ये तिथियाँ सर्प-दष्ट जीवोंके मृत्युको कारण होती है।।१५॥
चापद्वय ( मोन और धन ) कुम्भ, वृष, कर्कट, अज, कन्या-मिथुन, सिंह-अलि (वृश्चिक) और तुलानामवाली राशियोंमें एकान्तरित द्वितीया आदि तिथियां क्रमसे दग्ध ( नेष्ट-अशुभ) होती हैं । इन तिथियोंमें चन्द्रके होनेपर डंसे गये जीवोंके जीनेमें संशय रहता है ।।१५२-१५३।।
मूल, आश्लेषा, मघा, तीनों पूर्वाएं, भरणी, अश्विनी, कृतिका, आर्द्रा, विशाखा क्षौर रोहिणी ये नक्षत्र डसे गये प्राणोको मौतके देनेवाले होते हैं ॥१५४॥ नैऋत्य, आग्नेय और दक्षिण इन तीन दिशाओंको छोड़कर अन्य दिशाओंसे आये हुए सर्प-दष्ट जीवके जीवनका संशय है ।।१५५।। अपने दूध और रकसे चार बिन्दु यदि एक साथ निकलते हैं, अथवा एक भी बिन्दु सूजनके साथ सूक्ष्मरूपसे निकलता है तो वह दश आवर्तके सदृश हैं ॥१५६॥
काटने का स्थान काक-पदके आकारवाला हो, रक्त प्रवाहक हो, गर्त सहित हो, रेखा काली
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