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________________ कुन्दकुन्द श्रावकाचार जठरस्यानलं कायो बालो बालचिकित्सितम् । गृहो भूतादिवित्रास ऊर्ध्वाङ्गमध्वंशोधनम् ॥१३७ शल्यं लोहादि दंष्ट्राहिर्जरापि च रसायनम् । वृषः पोषः शरीरस्य व्याख्याष्टाङ्गस्य लेशतः ॥१३८ चित्राक्षर-कलाभ्यासो लक्षणं च गजाश्वयोः । गवादीनां च विज्ञेयं विद्वद-गोष्ठं चिकीर्षुणा ॥१३९ सामुद्रिकस्य रत्नस्य स्वप्नस्य शकुनस्य च । मेधमालोपदेशस्य सर्वाङ्गस्फुरणस्य च ॥१४० तथैव चाङ्गविद्यायाः शास्त्राणि निखिलान्यपि। ज्ञातव्यानि बुधैः सम्यक् वाञ्छद्भिहितमात्मनः ।।१४१॥ युग्मम् । शास्त्रं वात्सायनं ज्ञेयं न प्रकाश्यं यतस्ततः । ज्ञेयं भरतशास्त्रं च नाचार्य धीमता पुनः॥१४२ गुरोरतिशयं ज्ञात्वा पिण्डसिद्धि तथात्मनः । क्रूरमन्त्रान् परित्यज्य ग्राह्यो मन्त्रक्रमो हितः॥१४३ सत्यामपि विषाक्षायां न भक्ष्यं स्थावरं विषम् । पाणिभ्यां पन्नगादींश्च स्पृशेन्नैव जिजीविषुः ॥१४४ अथ जङ्गमविषविषये कालाकालविचारे क्रमःजाङ्गल्याः कुरुकुल्लायास्तोतलाया गरुन्मतः : विषार्तस्य जनस्यास्य कः परस्त्राणकरः परः ॥१४५ आदिष्टाः कोपिता मत्ता क्षुधिताः पूर्ववैरिणः । दन्दशूका दशन्त्यन्यान् प्राणिनस्त्राणवजितान् ॥१४६ वृष इन आठ अंगोंसे वैद्यकशास्त्र आठ प्रकारका प्रसिद्ध है ॥१३६॥ उदरकी अग्नि 'काय' कहलाती है, बालकोंकी चिकित्साको 'बाल' कहते हैं, भूत-प्रेतादिके द्वारा दिये जानेवाले कष्टको 'ग्रह' कहते हैं, ऊर्श्वभागका शोधन 'ऊर्ध्वाङ्ग' कहलाता है, लोह आदिको शलाकाओंसे चीर-फाड़ करना 'शल्य' कहलाता है, साँपके द्वारा काटनेको 'दंष्ट्रा' कहते हैं, रसायनको 'जरा' कहते हैं और शरीरका पोषण वृष कहलाता है। यह वैद्यक शास्त्रके आठों अंगोंकी संक्षेपसे व्याख्या है ॥१३७-१३८॥ विद्वानोंके साथ गोष्ठी करनेके इच्छुक पुरुषको चित्रमयी अक्षर लिखनेकी कलाका अभ्यास करना चाहिए, हस्ती और अश्वके, तथा गाय-बैल आदिके लक्षण भी जानना चाहिए ॥१३९॥ इसी प्रकार अपने सम्यक् हितको चाहनेवाले बुधजनोंको सामुद्रिकके, रत्नोंके, स्वप्नके, शकुनके, मेघमालाके उपदेशके, शरीरके सभी अंगोंके स्फुरणके, और अंगविद्याके सभी शास्त्रोंको भलीभाँतिसे जानना चाहिए ।।१४०-१४१|| काम-विषयक वात्सायनशास्त्र भी जानना चाहिए, किन्तु उसे दूसरोंके आगे प्रकाशित नहीं करना चाहिए। पुनः श्रीमान् पुरुषको संगीत-नाट्य-सम्बन्धी भरतशास्त्र भी जानना चाहिए, किन्तु उसे दूसरोंके सम्मुख आचरण नहीं करना चाहिए ॥१४२।। गुरुके अतिशयको जानकर अपने शरीरकी सिद्धि अर्थात् उदरशुद्धि आदि वस्तिकर्मको भी जानना चाहिए, तथा उच्चाटन-मारण आदि करनेवाले कर मंत्रोंको छोड़कर स्व-पर-हितकारी उत्तम मंत्रोंका क्रम ग्रहण करना चाहिए ॥१४३॥ विषको दूर करनेवाली विद्याको जाननेपर भी स्वयं स्थावर (शंखिया आदि पार्थिव) विष नहीं खाना चाहिए। तथा जीनेके इच्छुक वैद्यको सर्प आदि विषले जन्तुओंको हाथोंसे स्पर्श नहीं करना चाहिए ॥१४४।। ____ अब जंगम (त्रस-प्राणिज) विषके विषयमें काल और अकालके विचारका क्रम कहा जाता है-जांगुलोके, कुरुकुल्लाके, तोतलाके और गारुडीके सिवाय अन्य कौन दूसरा पुरुष विषसे पीड़ित जीवकी रक्षा करनेवाला है ? कोई भी नह ॥ १४५।। दूसरेके द्वारा आदेश दिये गये, क्रोधको प्राप्त, उन्मत्त, भूखसे पीड़ित और पूर्वभवके वैरी सर्प अपनी रक्षा करनेसे रहित अन्य प्राणियोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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