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________________ श्रावकाचार-संग्रह तथोल्कापात - निर्घात भूमिकम्पेषु गजिते । पञ्चत्वं च प्रयातानां बन्धूनां प्रेतकर्मणि ॥१२४ retoविद्युत भ्रष्टमलिनामेध्यसन्निधौ । ८४ श्मशाने वासमान्धे च नाधीतात्मनि चाशुचौ ॥ १२५॥ युग्मम् ॥ नाम्युच्चैर्नातिनीचैश्च तदेकाग्रमना सदा । नाविच्छिन्नपदं चैव नास्पष्टं पाठकं पठेत् ॥ १२६ शास्त्रानुरक्तिरारोग्यं विनयोद्यमबुद्धयः । आन्तराः पञ्च विज्ञेया धन्यानां पाठहेतवे ॥१२७ सहाया भोजनं वास आचार्यः पुस्तकास्तथा । अमी बाह्या अपि ज्ञेया पञ्च पाण्डित्यहेतवः || १२८ संस्कृते प्राकृते चैव सौरसेने च मागधे । पैशाचिकेऽपभ्रंशे च लक्षं लक्षणमादरात् ॥१२९ कवित्वहेतुः साहित्यं तर्को विज्ञत्वकारणम् । बुद्धिवृद्धिकरी नोतिस्तस्मादभ्यस्यते बुधैः ॥१३० पाटीगोल चक्राणां तथैव गृहबीजयोः । गणितं सर्वशास्त्रौघव्यापकं पठ्यतां सदा ॥१३१ धर्मशास्त्रश्रुतौ शरवल्लालसं यस्य मानसम् । परमार्थं स एवेह सम्यग् जानाति नापरः ॥१३२ ज्योतिःशास्त्रं समीक्षेत त्रिस्कन्धं विहितादरः । गणितं संहिताहोरैते तत्स्कन्धत्रयं पुनः ॥ १३३ प्रवृत्तिभेषजं व्याधि सात्म्यदेहं बलं वयः । कालं देशं तथा वह्न विभवं प्रतिचारकम् ॥१३४ विजानन् सर्वदा सम्यक् फलदं लोकयोर्द्वयोः । अभ्यसेद् वैद्यकं धीमान् यशोधर्मार्थसिद्धये ॥ १३५॥ युग्मम् | कायबाल-प्रहोर्ध्वाङ्ग-शल्य- दंष्ट्रा-जरा- वृषैः । एतैरष्टभिरङ्गैश्च वैद्यकं ख्यातमष्टधा ॥ १३६ इसी प्रकार उल्कापात, वज्रपात, भूमि-कम्प और मेघ गर्जन होने पर, मरणको प्राप्त हुए बन्धुजनोंके प्रेतकर्म करने पर, अकालमें बिजली चमकने पर भ्रष्ट और मलिन पुरुषके तथा अपवित्र वस्तुके सान्निध्य में, श्मशानमें, दिनमें रात्रिके समान अन्धकार होने पर और अपनी शारीरिक अशुचि - दशा में भी नहीं पढ़ना चाहिए ॥१२४-१२५॥ 1 न अति उच्च स्वरसे पढ़े, न अति मन्द स्वरसे पढ़े, किन्तु यथोचित मध्यम स्वरसे अध्ययनमें एकाग्र मन होकर ही सदा पढ़ना चाहिए । विच्छिन्न पद-युक्त भी नहीं पढ़े और पाठको अस्पष्ट भी नहीं पढ़ना चाहिए || १२६ || शास्त्र - पठनमें अनुरक्ति, निरोगता, विनय, उद्यम और बुद्धि ये पाँच आन्तरिक कारण धन्य पुरुषोंके पाठके हेतु हैं ॥ १२७॥ सहायक पुरुष, भोजन, आवास, आचार्य और पुस्तक ये पाँच पाण्डित्यके बाह्य हेतु जानना चाहिए || १२८|| संस्कृत, प्राकृत, सौरसेनी, मागधी, पैशाची और अपभ्रंश भाषा के लक्षण (व्याकरण) शास्त्रको आदरसे पढ़नेका लक्ष रखना चाहिए || १२९ ॥ साहित्य कवित्वका हेतु है, तर्क शास्त्र विज्ञता प्राप्त करनेका कारण है और नीति बुद्धिकी वृद्धि करती हैं, इसलिए बुधजन इन तीनों . विद्याओं का अभ्यास करते हैं ॥१३०॥ पाटी, गोलक और चक्रका, तथैव गृह और बीजका अध्ययन करे । तथा सर्वशास्त्र - समुदाय में व्यापक गणितको सदा ही पढ़ना चाहिए || १३१ || जिस मनुष्यका चित्त सदा धर्म शास्त्रके सुननेमें लालसायुक्त रहता है, वह पुरुष ही इस लोक में परमार्थ को जानता है, अन्य पुरुष परमार्थको नहीं जानते हैं ॥१३२॥ आदर-पूर्वक तीन स्कन्धवाले ज्योतिष शास्त्रको सम्यक् प्रकारसे पढ़े । पुनः उन तीनों स्कन्धों का गणित संहिता और होराके साथ अध्ययन करे ||१३३॥ इसी प्रकार बुद्धिमान् धर्म और अर्थकी सिद्धिके लिए दोनों लोकोंमें सम्यक् फल देनेवाले वैद्यक शास्त्रका प्रवृत्तिभेषज, व्याधि, वातादिकी समतावाला शरीर, बल, वय, (आयु) काल, देश, जठराग्नि, वैभव और प्रतिचारकको जानता हुआ अभ्यास करे ।। १३४ - १३५ ॥ काय, बाल, ग्रह, ऊर्ध्वाङ्ग, शल्य, दंष्ट्रा, जरा और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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