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________________ कुन्दकुन्द श्रावकाचार ૮૨ विद्ययापितया किन्तया नास्तिक्यादिदूषिता । स्वर्णेनापि हि कि तेन कर्णच्छेदं करोति यत् ॥११२ आचार्यो मधुरैर्वाक्यैः साभिप्रायावलोकनैः । शिष्यं शिक्षणनिर्लज्जं कुर्याद् बन्धनताड़नैः ॥११३ मस्तके हृदये वापि प्राज्ञश्छात्रं न ताडयेत् । अधोभागे शरीरस्य पुनः किचिच्च शिक्षयेत् ॥११४ कृतज्ञाः शुचयः प्राज्ञकल्पा द्रोहविर्वाजिताः । गुरुभिस्त्यक्तशाठ्याश्च पाठ्याः शिष्या विवेकिनः ॥११५ मधुराहारिणा प्रायो ब्रह्मव्रतविधायिना । दयादानादिशीलेन कौतुकालोकवर्जिना ॥ ११६ कपर्द प्रमुख-क्रीडा- विनोदपरिहारिणा । विनीतेन च शिष्येण सुपठितव्यमन्वहम् ॥११७॥ युग्मम् | गुरुष्वविनय धर्मे विद्वेषः स्वगुणैमंदः । गुणिषु द्वेष इत्येताः कालकूटच्छटाः स्फुटाः ॥११८ कलाचार्यस्य वाऽजत्रं पाठको हितमाचरेत् । निःशेषमपि चामुष्मै लब्धं चैव निवेदयेत् ॥११९ गुरोः सनगरग्रामां ददाति यदि मेदिनीम् । तदापि न भवत्येव कथञ्चदनुणः पुमान् ॥ १२० उपाध्यायमुपासीत तदनुद्धतवेषभृत् । विना पूज्यपदं पूज्यं नाम नैव सुधीवंदेत् ॥१२१ आत्मनश्च गुरोश्चैव भार्यायाः कृपणस्य च । क्षीयते वित्तमायुश्च मूलनामानुकोर्तनात् ॥१२२ चतुर्दशी - कूहूराकाष्टमीषु न पठेन्नरः । सूतकेऽपि तथा राहु-ग्रहणे चन्द्र-सूर्ययोः ॥ १२३ पढ़ाना अच्छा नहीं है ।। १११।। उस पढ़ाई गई विद्यासे क्या लाभ है जो कि नास्तिकता आदि दोषोंसे दूषित हो । उस सुवर्णके पहिरनेसे क्या लाभ है जो कानको छिन्न-भिन्न करता है ॥ ११२ ॥ आचार्य मधुर वाक्योंके द्वारा उत्तम अभिप्राययुक्त अवलोकनोंसे तथा समयोचित बन्धन और ताड़नसे शिष्यको शिक्षा ग्रहण करनेमें लज्जा और झिझकसे रहित करे ||११३|| बुद्धिमान् आचार्य मस्तक पर और हृदयपर छात्रको नहीं मारे । किन्तु शरीरके अधोभागमें (बावश्यक होनेपर कभी कुछ ताड़ना देवे ॥११४॥ अब शिष्योंका स्वरूप कहते हैं-जो गुरुकृत उपकारके माननेवाले हों, शौचघर्मयुक्त हों, पंडित सदृश बुद्धिमान हों, द्रोहसे रहित हों, शठतासे विमुक्त हों और विवेकी हों, ऐसे शिष्य गुरुजनों को पढ़ाना चाहिए ||११५ ॥ मधुर आहारी, प्रायः ब्रह्मचर्यव्रतका धारक, दया, दान आदि करने के स्वभाववाला, नाटक कौतुक देखनेका त्यागी, कौंडी आदिसे क्रीड़ा - विनोदका परिहारी और विनीत शिष्यको प्रतिदिन पढ़ना चाहिए | ११६-११७॥ गुरुजनोंमें विनयभाव नहीं रखना, धर्ममें विद्वेषभाव रखना, अपने गुणोंका मद करना और गुणीजनोंपर द्वेष करना, ये सब कार्य विद्या पढ़नेके इच्छुक शिष्यके लिए स्पष्ट रूप से कालकूट विषकी छटाके समान दुःखदायक है ॥ ११८ ॥ पढ़नेवाले शिष्यको कलाचार्यके प्रति सदा ही हितकारक आचरण करना चाहिए । तथा विद्याभ्यासके समय जो कुछ भी उसे प्राप्त हो, वह सम्पूर्ण ही गुरुके लिए समर्पण कर देना चाहिए ||११९|| यदि कोई सभी नगरों और ग्रामोंके साथ सारी पृथ्वीको भी देता है, तो भी वह पुरुष किसी भी प्रकारसे गुरुके ऋणसे रहित नहीं होता है ॥१२०॥ उद्धतता-रहित वेषका धारक शिष्य अपने उपाध्यायको भली प्रकारसे उपासना करे । बुद्धिमान् शिष्यको पूज्यपद लगाये बिना पूज्य गुरुका नाम नहीं बोलना चाहिए ॥ १२१ ॥ अपना, गुरुका, पत्नीका और कृपण पुरुषका मूल नाम उच्चारण करनेसे घन और आयु क्षीण होती है ॥ १२२ ॥ चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णमासो और अष्टमीके दिन मनुष्यको नहीं पढ़ना चाहिए । तथा सूतक के समय और राहुके द्वारा चन्द्र-सूर्यके ग्रहण होनेके कालमें भी नहीं पढ़ना चाहिए ||१२३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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