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भावकाचार-संग्रह दुःख देवकुलासन्ने गृहे हानिश्चतुःपये। धूर्तमत्तगृहाम्यासे स्यातां सुतधनमायो ॥१०२ बरी-वाडिमी-रम्भा-कर्कन्ध चीजपूरकाः । उत्पद्यन्ते गृहे यत्र तन्निकृत्तन्ति मूलतः ॥१०३ प्पामाद रोगोदयं विद्यावश्वत्थात्तु सदा भयम् । नूपपीडा वटाद् गेहे नेत्रव्याधिदुम्बरात् ॥१०४ लक्ष्मीनाशकरः क्षीरी कष्टको शत्रुभयप्रदा | अपत्यघ्नः फली तस्मादेषां काष्ठमपि त्यजेत् ॥१०५ कश्चिदूचे पुरोभागे वटः श्लाघ्य उदुम्बरः । दक्षिण पश्चिमेश्वत्यो वामे प्लक्षस्तथोत्तरे ॥१०६ बब शिष्यावबोषकमः
गुरुः सोमश्च सौम्यश्च घेष्ठोऽनिष्टौ कुजासितो।
विद्यारम्मे बुषः प्रोक्तो मध्यमौ मृगुभास्करी ॥१०७ पूर्वात्रयं श्रुतिद्वन्दं विवादो मूलमश्विनी । हस्तः शतभिषक् स्वातिश्चित्रा च मृगपञ्चकम् ॥१०८
बकुखः शास्त्रमर्मज्ञो घनालस्यो मदोमितः।
हस्तसिद्धस्तथा वाग्मी कलाचार्यो मतः सताम् ॥१०९ पितृम्यामीहशस्यैव कलाचायंस्य बालकः । वत्सरात्पञ्चमादूर्ध्वमर्पणीयः कृतोत्सवम् ॥११० इष्टानामप्यपत्यानां वरं भवतु मूर्खता । नास्तिकाद दुष्टचेष्टाश्च न च विद्यागुरोनं तु ॥१११
देव-कुलके समीप घरके होने पर दुःख होता है, चतुष्पथों (चौराहों) में घरके होने पर अर्थहानि होती है, धूर्त और मदिरासे उन्मत्त रहनेवाले पुरुषोंके घरके समीप घर होने पर पुत्र और धनका क्षय होता है ।।१०२।। जिस घरमें खजूर, अनार, केला, वेरी, और विजोरे उत्पन्न होते हैं, वे वृक्ष घरका मूलसे विनाश कर देते हैं ।।१०३॥ घरमें प्लक्ष (पिलखन) के वृक्षसे रोगोंकी उत्पत्ति होती है, पीपलके वृक्षसे सदा भय रहता है, वट वृक्षसे राजा-जनित पीड़ा होती है और कमरके वृक्षसे नेत्र-व्याधि होती है, ऐसा जानना चाहिए ॥१०४॥ घरमें क्षीरी (दूधवाले) वृक्ष लक्ष्मीका नाश करते हैं, कंटकवाला वृक्ष शत्रुका भय प्रदान करते हैं और फली (प्रियंगु ) वृक्ष पुत्र-धातक होता है, इसलिए इन वृक्षोंके काष्ठ तकको भी छोड़ देना चाहिए ॥१०५॥ कोई-कोई विद्वान् कहते हैं कि वट वृक्ष घरके पूर्व भागमें दक्षिण-भागमें उदुम्बर वृक्ष, पश्चिम भागमें पीपल और उत्तर भागमें प्लक्ष वृक्ष प्रशंसनीय होता है ।।१०६॥
अब शिष्योंको ज्ञान-प्रदान करनेका क्रम कहते हैं-शिष्योंको विद्या पढ़ानेके प्रारम्भमें गुरु और सोमबार सौम्य और श्रेष्ठ हैं, मंगल और शनिवार अनिष्टकारक हैं, शुक्र और रविवार पज्यम हैं। विद्वानोंने विद्याके आरम्भमें बुधवार उत्तम कहा है ॥१०७॥ विद्यारम्भमें तीनों पूर्वाएं, श्रुतिद्वन्द्व (श्रवण-धनिष्ठा ) मूल, अश्विनी, हस्त, शतभिषा, स्वाति, चित्रा और मृगपंचक (मृगशिर, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा) ये नक्षत्र उत्तम होते है ।।१०८॥
अब पढ़ानेवाले आचार्यका स्वरूप कहते हैं जो क्रोधी न हो, शास्त्रोंके मर्मका ज्ञाता हो, आलस्य-रहित हो, मद-अहंकारसे विमुक्त हो, हस्तसिद्ध हो और उत्तम वाणीवाला हो, ऐसा कलाचार्य सज्जनों द्वारा श्रेष्ठ माना गया है ।।१०९॥ माता-पिता पांच वर्षसे ऊपर होनेपर उत्सव करके अपना बालक उपर्युक्त प्रकारके कलाचार्यको विद्या पढ़ानेके लिए समर्पण करें॥११॥ अपने इष्ट भी पुत्रोंका मूर्ख रहना उत्तम है, किन्तु नास्तिक और दुष्ट चेष्टावाले विद्यागुरुसे
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