SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १३ ) अ० कुन्दकुन्दके ग्रन्थकारोंमें प्राचीन होनेका एक सबल प्रमाण यह भी है कि जहां आ गुणधरने पाँचवें पूर्वके तीसरे पाहुडका उपसंहार करके 'कसायपाहुड' की रचना की और आ० भूतबलि-पुष्पदन्तने दूसरे पूर्वगत 'कम्मपर्याडपाहुड' का उपसंहार कर षट्खण्डागमकी रचना की है, वहाँ बारहवें दृष्टिवादके अनेकों पूर्वोका दोहन करके कुन्दकुन्दने अनेकों पाहुडोंकी रचना की है । प्रसिद्धि तो उनके द्वारा ८४ पाहुडोंके रचनेकी है, पर वर्तमानमें उनके द्वारा रचे हुए २०-२२ पाहुड तो उपलब्ध हैं ही । शुद्ध आत्मतत्त्व के निरूपणको देखते हुए 'समयसार' आठवें आत्मप्रवादपूर्वका सार प्रतीत होता है । इसी प्रकार पंचास्तिकाय अस्तिनास्ति प्रवादपूर्वका, नियमसार प्रत्याख्यानपूर्वका और प्रवचनसार अनेक पूर्वोका सार ज्ञात होता है । मूलाचारको तो आ० वसुनन्दीने स्पष्ट रूपसे आचाराङ्गका उपसंहार कहा है । इस प्रकार से कुन्दकुन्द द्वादशाङ्ग श्रतमेंसे अनेक अंग और पूर्वके ज्ञाता सिद्ध होते हैं । अस्तु यहाँ यह पूछा जा सकता है कि आ० कुन्दकुन्दने आचारांगका उपसंहार करके मूलाचारकी रचना की है, तब उपासकाध्ययन अंगका उपसंहार करके किसी स्वतंत्र उपासकाध्ययनकी रचना क्यों नहीं की ? इसका उत्तर यह है कि उनके समय में साधु लोग शिथिलाचारी होने लगे थे, और अपने आचारको भूल गये थे । उनको उनका जिन-प्रणीत मार्ग बतानेके लिए मूलाचार रचा। किन्तु उस समय श्रावक -लोग अपने कर्तव्योंको जानते थे एवं तदनुसार आचरण भी करते थे । अतः उनके लिए स्वतंत्र उपासकाध्ययनकी रचना करना उन्हें आवश्यक प्रतीत नहीं हुआ । केवल चारित्रपाहुडके भीतर चारित्रके सकल और विकल भेद करके मात्र ६ गाथाओं में विकल चारित्रका वर्णन करना ही उचित जंचा। पहली गाथामें संयमाचरणके दो भेद कहकर बताया कि सागार सयमाचरण गृहस्थोंके होता है । दूसरी गाथामें ११ प्रतिमाओंके नाम कहे । तीसरीमें सागारसंयमाचरणको पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतरूप कहा । पश्चात् तीन गाथाओंमें उनके नाम गिनाये हैं । इन्होंने सल्लेखनाको चौथा शिक्षाव्रत माना है । देशावकाशिकव्रतको न गुणव्रतोंमें गिनाया है और न शिक्षाव्रतोंमें ही । इनके मत से दिक् परिमाण, अनर्थ-दंड- वर्जन और भोगोपभोग परिमाण ये तीन गुणव्रत हैं, तथा सामायिक, प्रोषध, अतिथिपूजा और सल्लेखना ये चार शिक्षाव्रत हैं । यहाँ यह विचारणीय कि मरणके अन्तमें की जानेवाली सल्लेखनाको शिक्षाव्रतों में किस दृष्टिसे कहा है ? और क्या इस चौथे शिक्षाव्रतकी पूर्तिके बिना ही श्रावक तीसरी आदि प्रतिमाओंका धारी हो सकता है ? चारित्रपाहुड-गत उक्त गाथाएँ श्रावकाचार - संग्रहके तीसरे भागमें परिशिष्टके अन्तर्गत संकलित हैं । आ० कुन्दकुन्द - रचित ८४ पाहुडोंकी प्रसिद्धि है । उनमेंसे आज २० उपलब्ध हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं १. समयपाहुड (समयसार), २. पंचास्तिकायपाहुड (पंचास्तिकाय), ३. प्रवचनसार, ४. नियमसार, ५. दंसणपाहुड, ६. चारित्तपाहुड, ७. सुत्तपाहुड, ८. बोधपाहुड, ९. भावपाहुड, १०. मोक्खपाहुड, ११. लिंगपाहुड, १२. सीलपाहुड, १३. बारस अणुवेक्खा, १४. रयणसार, १५. सिद्धभक्ति, १६. सुदभत्ति, १७. चारित्तभत्ति, १८. जोगिभत्ति, १९. आइरियभत्ति, २०. णिव्वाणभत्ति, २१. पंच गुरुभत्ति, २२. तित्थयरभत्ति । अनुपलब्ध परिकर्मसूत्र भी इनके द्वारा रचा गया कहा जाता है । यतः पाहुड पूर्वगत होते हैं, अतः कुन्दकुन्द पूर्वोके एक देश ज्ञाता सिद्ध होते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy