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________________ २. तस्वार्थसूत्र-आचार्य उमास्वाति उमास्वाति-द्वारा संस्कृत भाषामें निबद्ध तत्वार्थसूत्रमें श्रावक धर्मका वर्णन सर्व-प्रथम दृष्टिगोचर होता है। इन्होंने तत्त्वार्थसूत्रके सातवें अध्यायमें व्रतीको सबसे पहले माया, मिथ्यात्व और निदान इन तीन शल्योंसे रहित होना आवश्यक बतलाया, जब कि स्वामि कात्तिकेयने दार्शनिक श्रावकको निदान-रहित होना जरूरी कहा है। इसके पश्चात् इन्होंने व्रतीके आगारी और अनगार भेद करके अणुव्रतोको आगारी वताया। पुनः अहिंसादि व्रतोंकी पाँच-पाँच भावनाओंका वर्णन किया और प्रत्येक व्रतके पाँच-पाँच अतीचार बताये। इसके पूर्व न कुन्दकुन्दने अतीचारोंकी कोई सूचना दी है और न स्वामिकात्तिकेयने ही उनका कोई वर्णन किया है। तत्त्वार्थ सूत्रकारने अतीचारोंका यह वर्णन कहाँसे किया, यह एक विचारणीय प्रश्न है। अतीचारोंका विस्तृत वर्णन करने पर भी कुन्दकुन्द और कात्तिकेयके समान उमास्वातिने भी आठ मूल गुणोंका कोई वर्णन नहीं किया है, जिससे पता चलता है कि इनके समय तक मूल गुणोंकी कोई आवश्यकता अनुभव नहीं की गई थी। तत्त्वार्थसूत्र में ग्यारह प्रतिमाओंका भी उल्लेख नहीं है, यह बात उस दशामें विशेष चिन्ताका विषय हो जाती है, जब हम उनके द्वारा व्रतोंकी भावनाओंका और अतीचारोंका विस्तृत वर्णन किया गया पाते हैं। इन्होंने कुन्दकुन्द और कात्तिकेय प्रतिपादित गुणव्रत और शिक्षाव्रतोंके नामोंमें भी परिवर्तन किया है। इनके मतानुसार दिग्व्रत, देशव्रत, अनर्थदंड-विरति व्रत और सामायिक. प्रोषधोपवास उपभोग-परिभोग परिमाण. अतिथि संविभाग ये चार शिक्षाव्रत हैं । स्वामिकार्तिकेय-प्रतिपादित देशावकाशिकको इन्होंने गुणव्रतमें और भोगोपभोगपरिमाणको शिक्षाव्रतमें परिगणित किया है। सूत्रकारने मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य भावनाओंका भी वर्णन किया है । इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्रमें अहिसादिव्रतोंकी भावनाओं, अतीचारों और मैत्री, प्रमोद आदि भावनाओंके रूपमें तीन विधानात्मक विशेषताओंका, तथा अष्टमूलगुण और ग्यारह प्रतिमाओंके वर्णन नहीं करनेरूप दो अविधानात्मक विशेषताओंका दर्शन होता है। समय-विचार शिलालेखोंसे ज्ञात होता है कि गिद्धपिच्छाचार्य उमास्वाति श्री कुन्दकुन्दाचार्यके अन्वय या वंशमें हुए हैं। यथा १. तदीयवंशाकरतः प्रसिद्धादभूददोषा यतिरत्नमाला। बभौ यदन्तर्मणिवन्मुनीन्द्रः स कुण्डकुन्दोदितचण्डदण्डः ॥ १०॥ २. अभूदुमास्वातिमुनिः पवित्रे वंशे तदीये सकलार्थवेदी। सूचीकृत' येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थजात मुनिपुंगवेन ॥ ११ ॥ (शिलालेख सं० भा० १ अभिले०.१०८ पृ० २१०) ३. अभूदुमास्वातिमुनीश्वरोऽसावाचार्यशब्दोत्तरगृद्धपिच्छः । तदन्वये तत्सदृशोऽस्ति नान्यस्तात्कालिकाशेषपदार्थवेदी॥ (शिलालेखसं० भा० १ अभिले० ४३ पृ० ४३) १. कुछ विद्वान् इन भावनाओंको महाव्रतोंकी ही रक्षक मानते हैं। परन्तु लाटी-संहिताकारने उन्हें एक देशरूपसे अणुव्रतोंको भी सयुक्तिक रक्षक सिन किया है । (देखो-भाव ३ पृ. १०० श्लो०१८७ आदि) -सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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