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________________ अन्य और ग्रन्थकार परिचय प्रस्तुत श्रावकाचार-संग्रहमें संकलित श्रावकधर्मका वर्णन करनेवाले आचार्योंका परिचय कालक्रमसे यहाँ दिया जाता है। १. चरित्रपाहुड आचार्य-कुन्दकुन्द इतिहासज्ञोंके मतसे, तथा मुनि आचारके साथ द्रव्यानुयोग अध्यात्मशास्त्र एवं पाहुडसूत्रोंके रचयिताके रूपमें श्रीकुन्दकुन्दाचार्य सर्वप्रथम ग्रन्थकार सिद्ध होते हैं । दिगम्बर-परम्परामें उनका स्थान सर्वोपरि है यह बात मंगलाचरणमें बोले जानेवाले इस मंगल-पद्यसे स्पष्ट है मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी। मंगलं कुन्दकुन्दार्यों जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥ भगवान् महावीर और गौतम गणधरके पश्चात् उनका मंगलरूपसे स्मरण किया जाना ही उनकी सर्वोपरिताका द्योतक है। ___ यद्यपि इतिहासज्ञ उपलब्ध शिलालेखों आदिके आधार पर उनका समय विक्रमकी प्रथम शताब्दी निश्चित करते हैं, तथापि उनके द्वारा रचित बोधपाहुडके अन्तमें दी गई दो गाथाओंमें जब वे स्वयंको भद्रबाह श्रुतकेवलीका शिष्य प्रकट करते हैं, तब उन्हें प्रथम शताब्दी मानना विचारणीय हो जाता है। ये दोनों गाथाएँ इस प्रकार है सद्दवियारो हूओ भासासुत्तेसु जं जिणे कहियं । सो तह कहियं णायं सीसेण य भहबाहस्स ॥ ६२ ॥ बारस अंग वियाणं चउदसपुव्वंग विउल वित्थरणं ।। सुयणाणि भद्दबाहू गमयगुरू भयवओ जयऊँ।। ६२ ।। प्रथम गाथामें सामान्यरूपसे भद्रबाहुका उल्लेख करनेपर कोई शंकाकार कह सकता था कि वे कौनसे भद्रबाहु हैं, उसके समाधानके लिए ही भद्रबाहुके लिए तीन विशेषण दूसरी गाथामें दिये गये हैं- १ द्वादशाङ्गवेत्ता, चतुर्दशपूर्ववेत्ता और श्रुतज्ञानी। इन तीन विशेषणोंके प्रकाशमें यह स्पष्ट है कि वे अपनेको पंचम श्रुतकेवली भद्रबाहुका ही शिष्य घोषित कर रहे हैं । श्रुतावतारकथामें श्रुतधरोंके पट्ट पर आसीन होनेवाले आचार्योंकी परम्पराके नाम दिये गये हैं, जब कि ये आचरण करानेवाली आचार्य-परम्पराके आचार्य थे। यह बात मूलाचारके रचयिताके रूपमें उनके नामान्तर 'वट केराचार्य' से सिद्ध होती है। आचार्य कुन्दकुन्द मुनिसंघमें 'प्रवर्तक' पद पर आसीन थे और मूलाचारके टीकाकार वसुनन्दीने 'वट्टओ संघपवट्टओ' अर्थात् जो संघका प्रवर्तक होता है उसे वर्तक कहा। वर्तकका ही प्राकृतरूप 'वट्टक' है और 'एलाचार्य' का प्राकृत रूप ‘एरादूरिय' है। इन दोनों पदोंके संयोगसे वट्टकेरादूरिय वट्टकेराचार्य नाम प्रसिद्ध हो गया है। कुन्दकुन्दके पाँच नामोंमें एक नाम 'एलाचार्य' भी है । बाल-दीक्षित आचार्यको ‘एलाचार्य' कहा जाता है, यह बात भी मूलाचारको टीकासे ही सिद्ध है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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