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________________ कुन्दकुन्द श्रावकाचार दुर्बलाङ्गस्तथा चाम्लकदृष्णलवणान् रसान् । नाद्या व्यायाममुद्दामव्यवायं च सुधीस्त्यजेत् ॥१२ मृद्वीका-हृद्यपानानि सितांशुकविलेपनः । __ धारागृहाणि च ग्रीष्मे मदयन्ति मुनीमपि ॥१३॥ ( प्रीष्मः ) प्रावृषि प्राणिनो दोषाः क्षुभ्यन्ति पवनाग्नयः । मेघपातघरावाष्पजलसङ्करयोगतः ॥१४ एते ग्रीष्मेऽतिपानाद्धि क्षीणाङ्गानां भवन्त्यलम् । धातुसाम्बप्रदस्तस्माद्विधिः प्रावृषि युज्यते ॥१५ कूपवाप्योः पयः पेयं न सरः-सरितां पुनः । नावश्यायातपः ग्रामयानाम्भ:क्रीडनं पुनः ॥१६ वसेद् वेश्मनि निर्वात जलोपद्रवजिते । स्फुरच्छकटिकाङ्गारे कुङ्कुमोद्वर्तनान्वितः ॥१७ केशप्रसाधनाशक्तो रक्तधूपितवस्त्रभृत् । सुस्मिताननो यस्मै स्पृहयन्ति स्वयं श्रियः ॥१८ (वर्षा ऋतुः) प्रावृट्-काले स्फुरत्तेजः पुञ्जस्यास्य रश्मिभिः । तप्तानां कुप्यति प्रायः प्राणिनां पित्तमुल्वणम् ॥१९ पानमन्नं च तत्तस्मिन् मधुरं लघु शीतलम् । सतिक्तकं च संसेव्यं क्षुधितेनाशु मात्रया ॥२० रक्तमोक्षविरेको च श्वेतमाल्य-विलेपने । सरोवारि च रात्रौ च ज्योत्स्नामत्र समाश्रयेत् ॥२१ पूर्वानिलमवश्यायं दधि व्यायाममातपम् । क्षारं तैलं च यत्नेन त्यजेदत्र जितेन्द्रियः ॥२२ निर्मित भवनकी ऊपरी छतपर चन्दनके रससे लिप्त अंगवाला भाग्यशाली पुरुष रात्रिको बितावे ॥११॥ तथा इस ऋतुमें दुर्बल शरीरवाला मनुष्य खट्टे, कुछ गर्म और लवण रसोंको नहीं खावे । बुद्धिमान् पुरुषको व्यायाम और अधिक काम-सेवनका भी परित्याग करना चाहिए ।।१२।। द्राक्षारससे मनोहर पेय पदार्थ, श्वेत वस्त्र, चन्दन आदिका विलेपन और जलधारावाले गृह ये सब पदार्थ मुनिजनोंको भी मदयुक्त कर देते हैं ।।१३।। वर्षा ऋतुमें ( श्रावण-भाद्रपद मासमें ) मेघोंके जल बरसनेसे, उठी हुई भूमिकी भापसे, तथा पुराने जलमें नवीन जलके मिलनेके योगसे प्राणियोंके वात आदि दोष क्षुब्ध हो जाते हैं ॥१४॥ क्षीण अंगवाले पुरुषोंको ग्रीष्म ऋतु में अधिक शीतल जलादिके पीनेसे ये वात-प्रकोप आदिके दोष वर्षा ऋतुमें प्रचुरतासे हो जाते हैं, इसलिए धातुओंको समता प्रदान करनेवाली विधि वर्षा कालमें करना योग्य है ॥१५॥ इस ऋतुमें कुआं और बावड़ीका जल ही पीना चाहिए, किन्तु सरोवर और नदियोंका पानी नहीं पीना चाहिए। सर्दी-जुकामसे बचनेके लिए सूर्य-ताप, ग्रामोंका गमन और जल-क्रीड़ा करना भी उचित नहीं है ।।१६।। इस ऋतुमें निर्वात और जलके उपद्रवसे रहित, तथा प्रज्वलित सिगड़ीके अंगार-युक्त भवनमें कुंकुमके उवटनसे संयुक्त पुरुषको निवास करना चाहिए ॥१॥ वर्षा ऋतुमें जो मनुष्य शिरके केशोंके प्रसाधनमें आसक्त रहता है, धूप-सुवासित लाल वर्णके वस्त्रोंको धारण करता है और मुस्कराते हुए मुख रहता है, उसके लिए स्त्रियाँ स्वयं इच्छा करती हैं ॥१८॥ प्रावट-कालमें (आश्विन-कार्तिक मासमें) स्फुरायमान तेज-पुंजवाले सूर्यकी प्रखर किरणों से सन्तप्त प्राणियोंका उग्र पित्त प्रायः कुपित हो जाता है, इसलिए इस ऋतु में मधुर, लघु, शीतल, और तिक्त रससे युक्त अन्न-पान भूखके अनुसार यथोचित मात्रासे सेवन करना चाहिए ॥१९-२०॥ इस समय रक्त-विमोचन और मल-विरेचन करे, तथा श्वेत पुष्पोंकी मालाका धारण और चन्दनादिका विलेपन करे, सरोवरका निर्मल जल पीवे और (रात्रिमें चन्द्रकी) चाँदनीका आश्रय लेवे ॥२१॥ इस ऋतुमें पूर्वी पवन और ओसका सेवन, दहीका भक्षण, व्यायाम, सूर्यको धूप, क्षार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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