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________________ अथ षष्ठोल्लासः कालमाहात्म्यमस्त्येव सर्वत्र बलवत्तराम् । ऋत्वौचित्यमाहार-विहारादि-समाचरेत् ।।१ वसन्तेऽभ्यधिकं क्रुद्धं श्लेष्माग्नि हन्ति जाठरम् । तस्मादत्र दिवास्पापः कफकृद्वस्तुवत्त्यजेत् ॥२ व्यायामधूम्रकवल ग्रहणोद्वर्तनाञ्जनम् । वमनं चात्र कर्तव्यं कफोद्रेकनिवृत्तये ॥३ भोज्यं शाल्यादि च स्निग्धं तिक्तोष्ण कटुकादिकम् । अतिस्निग्धं गुरु शीतं पिच्छलामद्रवं न तु ॥४ श्लेष्मध्नान्युपभुञ्जीत मात्रया पानकानि च । स्वं कृष्णागुरुकाश्मीरचन्दनैश्च विलेपयेत् ॥५ पवनो दक्षिणश्चूतमञ्जरीमल्लिकास्त्रजः । ___ध्वनिर्भङ्गपिकानां च मधुः कस्योत्सवाय न ॥६॥ (बसन्तः) प्रीष्मे भुञ्जीत सुस्वादु शीतं स्निग्धं द्रवं लघु । यदत्र रसमुष्णांशुः कर्षयत्पवनैरपि ॥७ पयःशाल्यादिकं सपिरथमस्तु सशर्करम् । यत्राश्नीयाद् रसालां च पानकानि हिमानि च ॥८ पिबेज्ज्योत्स्नाहतं तोयं पाटलागन्धबन्धुरम् । मध्याह्न कायमाने वा नयेद् धारागृहेऽपि वा ॥९ वल्लभा मालतीस्पर्शा तापञ्चात्र प्रशामयेत् । व्यजनं सलिलाई च हर्षोत्कर्षाय जायते ॥१०॥ सौधोत्सङ्ग स्फुरद्वायौ मृगाङ्का तिमण्डिते । चन्दनद्रवलिप्ताङ्गो गमयेत् यामिनी पुनः ॥११ कालका माहात्म्य सर्वत्र अत्यन्त बलवान् है. इसलिए विज्ञ पुरुषोंको ऋतुके योग्य आहारविहार आदिका आचरण करना चाहिए ॥१॥ वसन्त ऋतुमें अधिक कुपित हुआ कफ उदरको श्लेष्माग्निको नष्टकर देता है। इसलिए इस ऋतु में दिनको सोना कफ-कारक वस्तुओंके समान छोड़ना चाहिए ॥२॥ इस वसन्त ऋतुमें कफकी अधिकता दूर करनेके लिए व्यायाम, अजवाइन आदिका धूम्र-पान सेवन, उद्वर्तन अंजन और वमन करना चाहिए ।।३।। इस ऋतुमें उत्तम शालिधान्यवाले चावल आदि अन्न, स्निग्ध भोज्य पदार्थ, तिक्त, उष्ण और कटुक द्रव्य खाना चाहिए। किन्तु अधिक स्निग्ध पदार्थ, पचने में भारी पक्वान्न, ठण्डे पदार्थ, घी, दूध आदिसे व्याप्त पदार्थ, खट्टे और तरल पदार्थ नहीं खाना चाहिए ॥४॥ जो पदार्थ कफके विनाशक हैं, उन्हें खाना चाहिए और उचित मात्रासे पीने योग्य पानकोंको पीना चाहिए। तथा अपने शरीरको कृष्ण अगुरु एवं केशर-चन्दनसे विलेपन करना चाहिए ॥५।। इस ऋतु में दक्षिण दिशाका पवन, आम्रमंजरी, मल्लिका पूष्पोंकी मालाएँ और भौंरो तथा कोयलोंकी ध्वनि किसके उत्सवके लिए नहीं होती है। अर्थात् सभी जीवोंके लिए आनन्द देनेवाली होती हैं ॥६॥ ग्रीष्म ऋतुमें सुस्वादु, शीतल, स्निग्ध, तरल और हलका भोजन करना चाहिए। क्योंकि इस ऋतुमें सूर्य तीक्ष्ण किरणोंसे और पवनके द्वारा शरीरके रसको खींचता है ।।७।। इस ऋतुमें दूध, शालि चावल आदि अन्न, घी और शक्कर-युक्त रसवाली वस्तुएं खानी चाहिए, तथा शीतल पेय पदार्थ पीना चाहिए ॥८॥ चन्द्रिकासे शीतल हुआ, तथा गुलाब-केवड़ाको सुगन्धसे सुवासित जल पीने । ग्रीष्म ऋतुमें मध्याह्नकालमें, अथवा जब गर्मी प्रतीत हो, तब जलधारागृहमें अर्थात् फुव्वारावाले घरमें समय बितावे ||९|| मालती-पूष्पके समान शीतल स्पर्शवाली प्राण-वल्लभाके साथ इस ऋतुका सूर्य-ताप शान्त करना चाहिए। जलसे गीला बीजना (पंखा) इस ऋतुमें हर्षको वृद्धि के लिए होता है ॥१०॥ वायुके चलनेपर चन्द्रकी चन्द्रिकासे मण्डित चूनेसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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