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कुन्दकुन्द श्रावकाचार
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क्रोष भोशोकमांद्यस्त्री भारयाताध्वकर्मभिः । परिक्लान्तरतीसारश्वासहिकादिकाविभिः ॥ २४१ वृद्धबालब लक्षीणैस्तृट्शूलक्षयविह्वलैः । अजीर्णप्रमुखः कार्यो विवास्वापोऽपि कर्हिचित् ॥२४२
उक्तं च
धातुसाम्यं वपुः पुष्टिस्तेषां निद्रागमो भवेत् । रसस्निग्धो घनश्लेष्ममेदास्त्वह्निशयो ननु ॥ २४३ वातोपचयरूक्षाभ्यां रजन्याश्चाल्पभावतः । दिवास्वापः सुखी ग्रीष्मे सोऽन्यदा श्लेष्मपित्तकृत् ॥२४४
उक्तं च
दिवास्वापो निरन्नानामपि पाषाणपाचकः । रात्रि जागरकालाधं भुक्तानामप्यसौ हितः ॥२४५ यातेऽस्ताचलचूलिकान्तरभुवं देवे रवो यामिनीयामार्घेषु विधेयमित्यभिदधे सम्यग्मया सप्तसु । यस्मिन्नाचरिते चिराय दधते मैत्रीमिवाकृत्रिमां जायन्तेऽत्र सुसंवादाः सुविधिना धर्मार्थकामाः स्फुटम् ॥२४६
इति श्री कुन्दकुन्दस्वामिविरचिते श्रावकाचारे दिनचर्यायां पञ्चमोल्लासः ।
रूक्षस्निग्धतका कारण है ॥ २४०॥ क्रोध, भय, शोक, अग्निमन्दता, मादकता, स्त्री-सेवन, भारवहन, मार्ग-गमन तथा थकान, अतीसार ( पेचिस ) श्वास, हिचको आदि कारणोंसे वृद्धजनों, बालकों, क्षीणबली पुरुषोंको एवं प्यास, शूल, क्षय रोगी, विह्वल तथा पुरुषोंको अजीर्ण आदि रोगोंसे ग्रस्त व्यक्तियोंको कभी कदाचित् दिनमें शयन भी करना चाहिए ॥२४१-२४२॥
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कहा भी है— जिनके शरीरमें धातुओंकी समानता होती है और शारीरिक पुष्टता रहती है, उनके निद्राका आगमन होता है । किन्तु दिनमें सोनेवाला पुरुष तो स्निग्ध रस, और मेदावाला होता है || २४३ ॥
सघन कफ
वायुके संचयसे. शारीरिक रूक्षतासे और रात्रिके छोटी होनेसे ग्रीष्म ऋतु दिनको सोना सुख-कारक है । इसके सिवाय अन्य ऋतु दिनका सोना कफ और पित्तको करता है || २४४॥
कहा भी है- दिनका सोना अन्न नहीं खानेवाले अर्थात् भूखे पुरुषोंको भी पाषाण-पाचक है । तथा रात्रि जागरणके आधे काल दिनमें सोना भोजन करनेवाले पुरुषोंको भी हितकारक है ॥२४५॥
सूर्य देवके अस्ताचलकी चूलिकाके मध्यवर्ती भूमिको प्राप्त होने पर, और रात्रिके आवे पहरोंके बीतने पर निद्रा लेना चाहिए, यह बात मैंने सम्यक् प्रकारसे सात स्थानों पर कही है । जिसके आचरण करने पर मनुष्य अकृत्रिम (स्वाभाविक) मैत्रीके समान चिरकालके लिए निद्राको धारण करता है, अर्थात् रात्रिभर गहरी सुखको नींद सोता है । इस प्रकारसे इस उल्लास में वर्णित कार्योंके करनेमें जो सुधी पुरुष विधिपूर्वक समुद्यत रहते हैं, उनके धर्म, अर्थ और काम ये तीनों पुरुषार्थं भलीभाँति से सिद्ध होते हैं ॥२४६||
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इस प्रकार श्री कुन्दकुन्दस्वामि-विरचित श्रावकाचारके अन्तर्गत दिनचर्याके वर्णनमें पंचम उल्लास समाप्त हुआ ।
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