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________________ धावकाचार-संग्रह खरद्विपरदा धन्याः पापाश्चामुखरदास्तथा। द्विपक्तिलक्षिता श्यामा करालसमदन्तकाः ॥२३१ अथ निद्रानिरोधनं समाधाय परिज्ञाय तदास्पदम् । विमृश्य जलमासन्नं कृत्वा द्वारनियन्त्रणम् ॥२३२ इदेवनमस्कारं कृत्वापमतिभिः शुचिः । रक्षणीयपवित्रायां शय्यायां पृथुतायुषि ॥२३३ सुसंवृत्तपराधानसर्वाहारविजितः । वामपाइँन कुर्वीत निद्रा सौख्याभिलाषुकः ॥२३४ (त्रिभिविशेषकम्) अनाविप्रभवा जीवा तमोहेतुस्तमोमयो । प्राचुर्यातमसः प्रायो निद्रा प्रादुर्भवेन्निशि ॥२३५ श्लेष्मावृतानि श्रोतांसि श्रमादुपरतानि च । यदाक्षाणि स्वकर्मभ्यस्तदा निद्रा शरीरिणाम् ॥२३६ निवृत्तानि यदाक्षाणि विषयेभ्यो मनः पुनः । विनिर्वतत पश्यन्ति तवा स्वप्नान् शरीरिणः ॥२३७ अत्याशक्त्याऽनवसरे निद्रा नैव प्रशस्यते । एषा सौख्यायुषी कालरात्रिवत्प्रणिहन्ति यत् ॥२३८ संवर्धयति सैवेह युक्ता निद्रा सुखायुषी। अनवच्छिन्नसन्ताना सूक्ष्मा कुल्येव वीरुधः ॥२३९ रजन्यां जागरो रूक्षः स्निग्धस्वारश्च वासहे । रूक्षस्निग्धमहोरात्रमासीनप्रचलायितम् ॥२४० तीक्ष्ण दाढ़ें, धन, भोग और सुखको देते हैं ।।२३०॥ खर (गर्दभ) और द्विप (गज) जैसे दाँतवाले धन्य पुरुष होते हैं, तथा आखु (मूषक) जैसे दाँतवाले पुरुष पापी होते हैं। दो पंक्तियों में दिखनेवाले, श्यामवर्ण और कराल (वक्र) दांतवाले पुरुष भी पापी होते हैं ।।२३१।। .. अब निद्राका वर्णन किया जाता है-दैनिक कार्योंका निरोध करके, निद्रा-योग्य स्थानको जानकर, विचार-पूर्वक जलको समीप रखकर, शयनागारके द्वारको बन्दकर, इष्टदेवको नमस्कार कर, अपमृत्यु-सूचक निमित्तोंसे पवित्र और सावधान होकर अपनी दीर्घ आयुकी कामना करते हुए सुरक्षित पवित्र शय्यापर, अपने अंगोंको भलीभाँति संवृत (ढंक) कर, पराधीनता और सर्व प्रकारके आहार-पानसे रहित होकर सुखका अभिलाषी मनुष्य वाम पार्श्वसे निद्राको लेवे ॥२३२-२३४॥ जीव अनादि-कालिक हैं और उनके निद्रा भी अनादिकालसे उत्पन्न हई चली आ रही है, यह निद्रा तमोहेतुक है और तमोमयी है अर्थात् तामसभाव और अन्धकारका कारण है और स्वयं तामसभावरूप और अन्धकाररूप है। तामस भावकी प्रचुरतासे प्रायः निद्रा रात्रिमें प्रकट होती है ।।२३५।। जब शरीरके स्रोत (द्वार) कफसे आवृत हो जाते हैं, अंग परिश्रम करनेसे थक जाते हैं और इन्द्रियाँ अपने-अपने कार्योंसे निवृत्त हो जाती हैं, तब प्राणियोंको निद्रा आती है ।२३६॥ इसी प्रकार जब इन्द्रियाँ अपने विषयोंसे निवृत्त हो जाती हैं और मन भी विषयोंसे निवृत्त होता है, तब जीव स्वप्नोंको देखते हैं ॥२३७|| अतिआसक्तिसे अनवसरमें नींद लेना प्रशंसनीय नहीं है। यह निद्रा अवसरपर ली जाय तो सुख और आयु-वर्धक है। किन्तु यदि वही अनवसरमें लो जाय तो कालरात्रिके समान प्राणोका विनाश करती है ॥२३८।। यह निद्रा यदि थकान होनेपर योग्य समयपर लो जातो है तो सुख और आयुका बढ़ाती है, जैसे कि अनवच्छिन्न (लगातार) प्रवाहवाली कुल्या (पानीकी नहर) छोटी-छोटी लताओंको बढ़ाती है ॥२३९।। रात्रिमें जागरण करना शरीरमें रक्षता उत्पन्न करता है, दिन में स्निग्ध स्वाप अर्थात् गहरी नींद लेना भी रूक्षता उत्पन्न करता है। तथा दिन और रात बैठे-बैठे प्रचला निद्रा लेना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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