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________________ कुन्दकुन्द श्रावकाचार गण्डान्तमूलमश्लेषा ऋक्षस्थानगमा प्रहाः । कुदिनं मातृ दुःखं च न स्युर्भाग्यवतां जनौ । २२१ पितुर्मातुर्धनस्य स्यान्नाशो यां त्रितयं क्रमात् । शुभो मूलतुर्येऽङ्घ्रिश्लेषाया व्यतिक्रमात् ॥२२२ आद्यः षष्ठस्त्रयोविंशो द्वितीयो नवमोऽष्टमः । अष्टाविंशस्य शूलस्य मुहूर्तो दुःखदो जनौ ॥२२३ भौमार्कशुक्रवाराश्चेदसम्पूर्ण च भं तथा । भद्रातिथेस्तु संयोगे परजातः पुमान् भवेत् ॥२२४ गुरुन प्रेक्षते लग्नं सोऽर्केन्दुं च तथा बुधः । सुकरेन्दुयुतोऽकश्चेच्चतुर्थे च परात्मजः ॥२२५ यदिदं तैः समं जन्म यदि वा दशना शिशोः । स्युमध्ये सप्तमासानां कुलनाशस्तथा ध्रुवम् ॥२२६ शान्तिकं तत्र कर्तव्यं दुनिमित्तविनाशनम् । जन्मप्रभृति नो दन्ताः पूर्णाः स्युर्वत्सरे द्वये ॥२२७ सम्माद्दशवर्षान्तं निपत्योद्यन्ति ते पुनः । राजा द्वात्रिंशता दन्तै गो स्यादेकहीनतः ॥२२८ त्रिंशता तनुपुष्टोऽष्टाविंशत्या सुखितः पुमान् । एकोनत्रिशता निःस्वो होनैर्दन्तैरतोऽधमाः ॥२२९ कुन्दपुष्पोपमाः सूक्ष्माः स्निग्धारुणपीठिकाः । तीक्ष्णदंष्ट्रा घना दन्ता धनभोगसुखप्रदाः ॥२३० गण्डान्त मूल आश्लेखा तथा रेवती, आश्विनी, मघा इन नक्षत्रोंके स्थान-गत ग्रह एवं कुदिन अर्थात् भद्रा तिथि, वैधृति और व्यतिपात योग और गण्डान्त लग्न भाग्यवानके जन्म-समय नहीं होते हैं और न उन्हें माताके वियोगका दुःख होता है । मूल-गत गण्डान्त भागके प्रथम चरण में बालकक जन्म होने पर पिताका नाश, द्वितीय चरणमें जन्म होने पर माताका नाश, और तृतीय चरणमें जन्म होने पर धनका नाश होता है। इसी प्रकार आश्लेषा नक्षत्रके गण्डान्नके चतुर्थ चरणमें जन्म होने पर पिताका, तृतीय चरणमें जन्म होने पर माताका और द्वितीय चरण में जन्म होने पर धनका नाश होता है। किन्तु मूल गण्डान्तके चतुर्थ चरणमें और आश्लेषा गण्डान्तके प्रथम चरणमें जन्म शुभकारक होता है ।।२२१-२२२।। जन्म-कालमें दिनका प्रथम, द्वितीय, षष्ठ, अष्टम, नवम, तेवीसवां और अट्ठाईसवां मुहर्त शूलके दुःखको देता है ॥२२३॥ मंगल, रवि, और शुक्रवार हो, तथा उम दिन नक्षत्र असम्पूर्ण हो और भद्रा तिथिका संयोग हो तो पुरुष पर-जात (जारज) होगा ॥२२४॥ यदि जन्म लग्नको सूर्य, चन्द्र, बुध और गुरु न देखते हों, तथा सूर्य और चन्द्र क्रूर ग्रहसे युक्त चतुर्थ स्थानमें हों तो . जातक जारज होगा ॥२२५॥ __ यदि शिशुका जन्म सदन्त होता है तो सात मासके भीतर अपना अथवा कुलका निश्चयसे नाश करता है ॥२२६॥ दुनिमित्तको शान्तिके लिए शान्ति कराना आवश्यक है। क्योंकि जन्म कालसे उत्पन्न होनेवाले दांत अशुभ होते हैं और वे दांत दो वर्ष में पूर्ण होते हैं ॥२२७॥ यदि उपर्युक्त अशुभ योगोंमें जन्म हो तो उन दुनिमित्तोंका विनाशक शान्तिकर्म करना चाहिए। उत्पन्न हुई सन्तानके जन्मकालसे लेकर दो वर्ष तक दाँत पूरे प्रगट होते हैं ॥२२७॥ सात वर्षसे लेकर दशवर्षकी अवस्था तक जन्मजात दांत गिरकर पुनः उत्पन्न होते हैं। बत्तीस दाँतवाला पुरुष राजा होता है। एककम अर्थात् इकतीस दाँतवाला पुरुष भोगी होता है ।।२२८॥ तीस दाँतवाला पुरुष शरीरसे पुष्ट होता है और अट्ठाईस दाँतवाला पुरुष सुखी होता है। उनतीस दाँतवाला मनुष्य निर्धन होता है। इससे कम दांतोंसे मनुष्य अधम होते हैं ।।२२९।। कुन्द पुष्पके समान उज्ज्वलवर्णवाले, सूक्ष्म (छोटे) स्निग्ध और अरुण पीठिकावाले, सघन दांत और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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