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________________ श्रावकाचार-संग्रह षष्ठे रूपं चिनोत्युच्चैरात्मनः पित्तशोणिते । सप्तमे पूर्वमानात्त पेशी पञ्चशती गुणाः ॥२०९ करोति नाडीप्रभवां नाडीसप्तशती तथा । नवसंख्यां पुनस्तत्र धमनी रचयत्यसौ ॥२१० नाडी सप्तशतानि स्युर्विशत्यूनानि योषिताम् । भवेयुः खण्डदेहे तु त्रिशयनानि तान्यपि ॥२११ नव श्रोतांसि पुंसां स्युरेकादश तु योषिताम् । दन्तस्थानानि कस्यापि द्वात्रिंशत्पुण्यशालिनः ॥२१२ सन्धोन् पृष्ठकरण्डस्य कुरुतेऽष्टादश स्फुटम् । प्रत्येकमन्त्रयुग्मं च व्यानपञ्चकमानकम् ॥२१३ करोति द्वावशाङ्गे च पांशुलीनां करण्डकाः । तथा पांशुलिकाषटकं मध्यस्थः मूत्रधारवत् ॥२१४ सक्षाणां रोमकूपानां कुरुते कोटिमत्र च । अर्ष तुर्या रोमकोटोतिस्रस्तु श्यश्रुमूर्धजा ॥२१५ अष्टमे मासि निष्पन्नः प्रायः स्यात्सकलोऽप्यसौ । तथौजो रूपमाहारं गृह्णात्येष विशेषतः ॥२१६ गर्ने जीवो वसत्येवं वासराणां शतद्वयम् । अधिकं सप्तसप्तत्याविवसाधैर्नतु ध्रुवम् ॥२१७ गर्भ त्वषोमुखी दुःखी जननीपृष्ठसम्मुखम् । यद्वीजलिललाटे च पच्यते जठराग्निना ॥२१८ असो जागत्ति जागा स्वपित्यां स्वपिति स्फुटम्। सुखिन्यां सुखवान् दुःखी दुःखवत्यां च मातरि ॥२१९ पुरुषो दक्षिणे कुक्षौ वामे स्त्री यमले द्वयोः । ज्ञेयमुदरमध्यस्थं नपुंसकमसंशयम् ॥२२० मासमें दोनों हाथ, दोनों पाद और शिरके ये पांच अंकुर प्रकट होते हैं ।।२०८॥ छठे मासमें गर्भस्थ जीव अपने पित्त और रक्तके अनुसार रूपका संचय करता है। सातवें मासमें प्रथम मासके पूर्व प्रमाण मांस-पेशी पांच सौ गुणी हो जाती हैं ॥२०९॥ तथा इसी मासमें पूर्व नाड़ीसे उत्पन्न हुई नाड़ियां सात सौ गुणीकर देता है । पुनः वह उन्हीमें नौ संख्यावाली धमनियोंको रचता है ॥२१॥ स्त्रियोंकी नाड़िया बीस कम सात सौ अर्थात् छह सौ अस्सो होती है। किसी स्त्रीके खण्डदेहमें वे तीस कम सात सो अर्थात् छह सौ सत्तर भी होती हैं ।।२११॥ पुरुषोंके शरीरमें मल-प्रवाहक नौ स्रोत (द्वार) होते हैं और स्त्रियोंके शरीरमें दो स्तनस्रोतोंके योगसे ग्यारह स्रोत होते हैं। तथा किसी ही पुण्यशाली पुरुषके बत्तीस दन्तस्थान अर्थात् दाँत होते हैं ॥२१२॥ पृष्ठ-करण्डकी स्पष्ट अठारह अस्थि सन्धियोंको गर्भस्थ जीव कर्मयोगसे रचता है। प्रत्येक अस्थि-सन्धि और दो आंतोंको पांच व्यान ( वायुविशेष ) प्रमाण करता है ॥२१॥ तथा शरीरमें बारह पांशुलियों (पशुलियों) के (करण्डक) करता है और मध्यमें स्थित छह पांशुलिकाओंको मूत्रधारके समान निर्माण करता है ॥२१४|| निर्माण नामकर्म इस शरीरमें लाखों रोमकूपोंकी कोटिको रचता है। सर्व रोम साढ़े तीन कोटि होते हैं। दाढ़ी, मूछ और शिर इन तीन स्थानों पर केश उत्पन्न होते हैं ॥२१५|| आठवें मासमें यह शरीर प्रायः सम्पूर्ण सम्पन्न हो जाता है। इस मासमें यह जीव विशेष रूपसे ओज रूप आहारको ग्रहण करता है ॥२१६।। इस प्रकार यह जीव गर्भसे सतहत्तर अधिक दोसौ दिन (२७७) निवास करता है । ध्रुव रूपसे यह नियम नहीं है, क्योंकि कोई-कोई जीव इससे कम दिन भी गर्भमें रहता है ॥२१७।। गर्भमें यह जीव अधोमुख होकर माताकी पीठकी ओर मुख करके दुःखी रहता है। और .... ........"ललाटमें जठराग्निसे पचता है ॥२१८॥ माताके जागने पर वह जागता है और माताके सोने पर वह भलीभांतिसे सोता है। माताके सुखी रहने पर वह सुखी और दुःखी होने पर वह दुःखी होता है ॥२१९॥ स्त्रीको दक्षिण कुक्षिमें पुत्र, वाम कुक्षिमें पुत्री और दोनों कुक्षियों में गर्भके प्रतीत होने पर युगल सन्तान उत्पन्न होती है। यदि गर्भस्थ जीव उदर में स्थित प्रतीत हो तो निःसन्देह नपुंसक जानना चाहिए ॥२२०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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