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________________ कुन्दकुन्द श्रावकाचार पुराणे रजनीक्षाणि न वाक-शुक्रसंक्षये। स्त्रीणां गर्भाशये जीवः स्वकर्मवशगो भवेत् ॥१९९ नारी रक्ताधिके शुक्रे नरः साम्यान्नपुंसकः । अतो वोर्याभिवृद्धयर्थं वृष्ययोगं पुमान् श्रयेत् ॥२०० वृष्यलक्षणमुक्तम्यत्किञ्चिन्मधुरं स्निग्धं बृहणं बलवर्धनम् । हर्षणं मनसश्चैव सर्व तद् वृष्यमुच्यते ॥२०१ पितुः शुक्र जनन्याश्च शोणितं कर्मयोगतः । आसाद्य कुरुते जीवः सद्यो वपुरुपक्रमम् ।।२०२ भवेदेतदहोरात्रैः सप्तभिः सप्तभिः क्रमात् । कलिलं चावंदश्चैव ततः पेशी ततो धनम् ॥२०३ प्रथमे मासि तत्तावत्कर्षान्नूनं तरल भवेत् । द्वितीये व्यधिकं किञ्चित्पूर्वस्मादथ जायते ॥२०४ जनन्या कुरुते गर्भस्तृतीये मासि दौहृदम् । गर्भानुभावतश्चैतदुत्पद्येत शुभाशुभम् ॥२०५ पुन्नाम्नि दौहृदे जाते पुमान् स्त्रीसङ्गके पुनः । स्त्रो क्लीवाह्वे पुनः क्लीवं स्वप्नेऽप्येवं विनिर्दिशेत् ॥२०६ अपूर्णदौहृदाद्वायुःकुपितोऽन्तःकलेवरम् । सद्यो विनाशयेद् गर्भ विरूपं कुरुतेऽथवा ॥२०७ मातुरङ्गानि तुर्ये तु मासे मांसलयेत्फलम् । पाणिपादशिरोऽङ्करा जायन्ते पञ्च पञ्चमे ॥२०८ होता है ।।१९८।। पुराण अर्थात् गर्भाधान-माल बीतने पर गर्भाधानके नक्षत्रादि गुरु-शुक्रास्त आदिका दोष नहीं माना जाता है, क्योंकि स्त्रियोंके गर्भाशयमें जीव अपने कर्मके वशवर्ती होकर उत्पन्न होता है ।।१९९।। स्त्रीका रज ( रक्त ) अधिक होने पर पुत्री उत्पन्न होती है, पुरुषका वीर्य अधिक होनेपर पुत्र पैदा होता है और दोनोंके रज और वीर्यकी समानतासे सन्तान नपुंसक होती है, अतः अपने वीर्यकी अभिवृद्धिके लिए पुरुष वृष्य ( पौष्टिक वीर्य-वर्धक ) योगोंका आश्रय लेवे। अर्थात् बाजीकरण औषधियोंका सेवन करे ॥२०॥ वृष्य पदार्थोका लक्षण इस प्रकारसे कहा गया है-जो कोई वस्तु मधुर, स्निग्ध वीर्य-वर्धक एवं बलको बढ़ानेवाली है और जिसके सेवनसे मनको हर्ष उत्नन्न हो, वह सर्व वस्तु-योग्य वृष्य कहा जाता है ॥२०१॥ कर्मयोगसे पिताके वीर्यको और माताके रक्तको प्राप्त कर गर्भस्थ जीव शीघ्र ही अपने शरीरका उपक्रम करता है ॥२०२॥ यहाँ शरीरका उपक्रम सात-सात अहो-रात्रियोंके द्वारा क्रमसे पहिले कललरूप, पुनः अर्बुदरूप, पुनः पेशीरूप और पुनः घनरूप होता है ॥२०३।। प्रथम मासमें वह शरीर-उपक्रम एक कर्ष (माप विशेष) से कुछ कम और तरल रहता है। द्वितीय मासमें पूर्वसे कुछ अधिक परिमाणवाला होता है ॥२०४|| तीसरे मासमें गर्भ माताके दोहला उत्पन्न करता है। गर्भके प्रभावके अनुसार यह दोहला शुम और अशुभ दोनों प्रकारका उत्पन्न होता है ।।२०५।। भावार्थ-यदि सन्तान उत्तम उत्पन्न होनेवाली हो तो शुभ दोहला उत्पन्न होता है और यदि वह खोटी उत्पन्न होनेवाली हो, तो अशुभ दोहला उत्पन्न होता है। पुरुष-नामवाला दोहला होने पर पुत्र होता है, स्त्री-संज्ञक दोहला होने पर पुत्री उत्पन्न होती है और नपुसक जातीय दोहला होने पर सन्तान नपुसक उत्पन्न होती है। यही नियम गर्भाधानके समय आनेवाले स्वप्नके विषयमें भी कहना चाहिए ॥२०६।। यदि माताके उत्पन्न हुए दोहलेको पूरा न किया जावे तो कुपित हुई वायु गर्भस्थ कलेवर का शीघ्र विनाश कर देती है, अथवा गर्भको विकृतरूप कर देता है ॥२०७॥ दोहलेके परिपूर्ण होने पर चौथे मासमें माताके अंग मांसलता ( परिपुष्टता ) रूप फलको प्राप्त होते हैं । पांचवें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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