SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 261
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रावकाचार-संग्रह तथा हि प्राप्तवीयौं तौ सुतं जनयतः परम् । आयुर्बलसमायुक्तं सर्वेन्द्रियसमन्वितम् ॥१८८ न्यूनषोडशवर्षायां न्यूनाब्दपञ्चविशतेः । पुमान् यं जनवेद गर्भ स गर्भः स्वल्पजीवितः १८९ अल्पायुर्बलहीनो वा दरिद्रोऽपद्रुतोऽथवा । कुष्टादिरोगी यदि वा भवेद्वा विकलेन्द्रियः ॥१९० प्रशस्तचित्त एकान्ते भजेन्नारों नरो यदि । यादृग्मनः पिता धत्ते पुत्रस्तत्सहजो भवेत् ॥१९१ भजेन्नारी शुचिः प्रोतः श्रीखण्डादिभिरुन्मदः । अश्राद्धभोजी तृष्णादिबाधया परिजितः ॥१९२ सविभ्रमवचोभिश्च पूर्वमुल्लास्य वल्लभाम् । समकाले पतेन्मूलकमले क्रोडरेतसम् ॥१९३ पुत्रार्थ रमयेद् धीमान् वहेद्दक्षिणनासिकः । प्रवहद्वामनाडोस्तु कामयेतान्यदा पुनः ॥१९४॥ (युग्मम्) गर्भाधाने मघा वा रेवत्यपि यतोऽनयोः । पुत्रजन्मदिने मूलाश्लेषयुते च दुःखदः ॥१९५ रत्नानीव प्रसन्नेऽह्नि जाताः स्युः सूनवः शुभाः । अतो मूलमपि त्याज्यं गर्भाधाने शुभाथिभिः ॥१९६ आधानाद्दशमे जन्म दशमे कर्म नामभाक् । कर्म भात्पञ्चमे मृत्युं कुर्यादेषु न किञ्चन ॥१९७ पापषव्यापगा सौम्यास्तनुत्रिकोणकेन्द्रगाः । स्त्रीसेवासमये सौम्ययुक्ता दुःपुत्रजन्मदाः ॥१९८ मान् पुरुष विशिष्ट गुणयुक्त पुत्र उत्पन्न करने की कामनासे उद्यम करे ॥१८७।। इस प्रकारसे परिपक्व वीर्यको प्राप्त स्त्री और पुरुष आलसे संयुक्त और सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे सम्पन्न उत्तम पुत्रको उत्पन्न करते हैं ।।१८८। सोलह वर्षसे कम आयुवाली स्त्रीमें पच्चीस-वर्षसे हीन आयुवाला पुरुष जिस गर्भको उत्पन्न करता है, वह गर्भ अल्प जीवनवाला होता है ॥१८९।। अपरिपक्व रजवोर्यवाले स्त्री पुरुष जिस पुत्रको उत्पन्न करते हैं, वह अल्पायु, बलहीन, दरिद्र, और रोगोंसे पीडित रहता है। अथवा कोढ़ आदि रोगवाला या विकल इन्द्रियोंका धारक होता है ॥१९॥ प्रसन्न एवं उत्तम चित्तवाला पुरुष यदि एकान्तमें स्त्रीका सेवन करे तो पिता जैसा मन रखता है, वैसे ही मनवाला पुत्र सहज ही उत्पन्न होगा ।।१९१।। पवित्र शरीर और प्रीतियुक्त पुरुष श्रीखण्ड आदिके सेवनसे मदमस्त होकर स्त्रोका सेवन करे। स्त्री-समागमके दिन उसे श्राद्ध भोजन नहीं करना चाहिए और तृष्णा आदिको बाधासे परिवजित होना चाहिए ।।१९२।। हास-विलासयुक्त वचनोंके द्वारा प्राण-वल्लभाको पहिले उल्लासयुक्त करके एक साथ समान कालमें स्त्रोके मूलकमलमें वोर्यपात करना चाहिए ॥१९३।। नासिकाका दक्षिण स्वर चलते हुए बुद्धिमान् पुरुष पुत्रके लिए स्त्रीका रमण करे । अन्यथा अन्य समय वाम स्वरके चलते हुए स्त्रोका सेवन करे ||१९४॥ गर्भाधानके समय मघा ओर रेवती नक्षत्रका वर्जन करे, क्योंकि इन दोनों नक्षत्रोंमें, तथा मूल और आश्लेषायुक्त दिनमें पुत्रका जन्म दुःखदायी होता है ।।१९५।। प्रसन्न दिनमें अर्थात् नक्षत्रादि-दोषसे रहित दिनमें उत्पन्न हुए पुत्र रत्नोंके समान शुभ लक्षणवाले और कल्याणकारक होत हैं। इसलिए अपना शुभ चाहनेवाले पुरुषोंको गर्भाधान में मूलनक्षत्र भी त्यागनेके योग्य है ॥१९६॥ गर्भाधानके दशवें मासमें सन्तानका जन्म होता है। तदनुसार दशवें दिन नाम-संस्कार करना चाहिए। जन्म दिनसे पाँच दिनके भीतर नाम-संस्कार करनेसे मृत्यु हो जातो है, इसलिए इन दिनोंमें संस्कारका कोई कार्य नहीं करना चाहिए ॥१९७॥ स्त्रीके गर्भाधानके समय लग्नसे तीसरे, छठे और ग्यारहवें स्थानमें पाप-ग्रह गये हों और लग्न त्रिकोण, पंचम, नवम केन्द्रगत (१,४,७, १०) स्थानोंमें शुभ ग्रह गये हों तो ऐसे समयमें गर्भाधानसे खोटे पुत्रोंका जन्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy