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________________ कुन्दकुन्द श्रावकाचार अथ कुलस्त्रीणां धर्मः - दत्ता या कन्यका यस्मै माता भ्राता पिताथवा । देवतेव तया पूज्यो गतसर्वगुणोऽपि सः ॥१५६ पितृभर्तृ सुतैर्नार्यो बाल्ययौवनवार्धके । रक्षणीया प्रयत्नेन कलङ्कः स्यात्कुलोऽन्यथा ।। १५७ दक्षा तुष्टा प्रियालापा पतिचित्तानुगामिनी । कालोचित्याद् व्ययकरी सा स्त्री लक्ष्मीरिवापरा ॥१५८ स्वपयेदयिते शेते तस्मात्पूर्वं विबुध्यते । भुक्ते भुक्तवति ज्ञाते सकृद्या स्त्रीमतल्लिका ॥ १५९ न कुत्सयेद्वरं बाला श्वसुर प्रमुखांश्च या । ताम्बूलमपि नादत्ते दत्तमन्येन सोत्तमा ॥१६० न गन्तव्यमुत्सवे चत्वरे पश्चि... | देवयात्राकथास्थाने न तथा रङ्गजागरे ॥ १६१ या दृष्ट्वा पतिमायान्तमभ्युत्तिष्ठति सम्भ्रमात् । तत्पादन्यस्तदृष्टिश्च दत्ते तस्य मनः स्वयम् ॥१६२ भाषिता तेन सव्रीडं नम्रीभवति तत्क्षणात् । स्वयं सविनयं तस्य परिचर्या करोति च ॥ १६३ निर्व्याजहृदया पत्युः श्वश्रूषु व्यक्तिभक्तिभाक् । सदा नम्रानना नृणां बद्धस्नेहा च बन्धुषु ॥ १६४ पत्नीष्वपि सम्प्रीतिः परिचितेष्वतिवत्सला । सनमपेशलालापा कामितुमत्रमण्डले ॥ १६५ या च ते द्वेषिषु द्वेषा सक्लेशकलुषाशया । गृहश्रीरिव सा साक्षाद गृहिणी गृहमेधिनः ॥ १६६ ॥ कुलकम् ॥ ५७ नहीं करना चाहिए। क्योंकि वैसा करनेपर वह विरक्त हो जाती है ।। १५५ ।। अब कुल-वधुओं का धर्म कहते हैं - जिस पुरुषके लिए माता, पिता अथवा भाईने कन्याको दिया है, अर्थात् विवाह किया है, उसे वह पुरुष देवताके समान पूजना चाहिए, भले ही वह पतिके योग्य सर्वगुणोंसे रहित ही हो ॥ १५६ || बाल्यकालमें स्त्रियोंकी रक्षा पिताओंको, यौवनकालमें भाइयोंको और वृद्धावस्था में पुत्रोंको प्रयत्न - पूर्वक करनी चाहिए, अन्यथा कुल कलंकित हो जाता है || १५७|| वह स्त्री साक्षात् दूसरी लक्ष्मीके समान है जो चतुर हो, सन्तुष्ट रहती हो, प्रिय वचन बोलती हो, पतिके चित्तके अनुसार कार्य करती हो और योग्य समयका ध्यान रखकर धन-व्यय करती हो ॥ १५८ ॥ जो पतिके सो जानेपर पोछे सोती है और पतिसे पहिले जाग जाती है तथा पतिने भोजन कर लिया हैं, यह ज्ञात होनेपर पीछे स्वयं भोजन करती है, वह स्त्री सर्व स्त्रियों में शिरोमणि है || १५९ || जो स्त्री पतिसे घृणा नहीं करती है और श्वसुर आदि गृहके प्रमुखजनोंके साथ भी ग्लानि नहीं करती है, तथा अन्य पुरुषके द्वारा दिये गये ताम्बूलको भी ग्रहण नहीं करती है, वह उत्तम स्त्री कहलाती है ॥ १६०॥ कुलवधूको अकेले किसी उत्सव, मेला आदिमें नहीं जाना चाहिए, चौराहोंपर भी नहीं जावे, देवयात्रा, कथा-स्थानक तथा रात्रिके रंगोत्सवके जागरण में भी अकेले नहीं जाना चाहिए ॥ १६१ ॥ जो पतिको आता हुआ देखकर हर्ष से उठ खड़ी होती है । उसके आनेपर उसके चरणोंपर अपनी दृष्टि रखती है, उसके मनकी वस्तु स्वयं देती है, पतिके द्वारा बोली जानेपर सलज्जित होकर तत्काल विनम्र हो जाती है और स्वयं ही विनय-पूर्वक उसकी यथोचित परिचर्या करती है, छल-कपटसे रहित हृदयसे पतिकी माता आदि वृद्धजनोंकी व्यक्तरूपसे भक्ति करती है, मनुष्योंके आगे सदा विनम्र मुख रहती है, अपने कुटुम्बी बन्धुजनोंपर गाढ़ स्नेह रखती है, अपनी सोतोंपर भी उत्तम प्रीति रखती है परिचित जनोंपर अतिवात्सल्यभाव धारण करती है, पतिके मित्र मण्डलपर लज्जाके साथ कोमल मधुर वार्तालाप करती है और जो पतिके द्वेषी जनोंपर क्लेश-युक्त कलुचित चित्त होकर 4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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