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________________ भावकाचार-संबह इतीवं वात्स्यायनोक्तम् । वाग्भट्टस्त्वित्थमाहयहाद्वसन्तशरदोः पक्षावर्षानिदाघयोः । सेवेत कामतः कामं हेमन्ते शिशिरे बली ॥१४५ अतीयातिप्रसङ्गो निदानमत्यागमस्तथा।। चत्वारोपि न कर्तव्या कामिभिः कामिनीजने ॥१४६ अतोातो हि रोषः स्यादुद्वेगोऽतिप्रसङ्गतः । लोभो निदानतः स्त्रीणामत्यागमादलज्जताम् ॥१४७ वितन्वती क्षुतं जृम्भां स्नान-पानाशनानि च । मूत्रकर्म च कुर्वाणां कुर्वेषां च रजस्वलाम् ॥१४८ तथान्यनरसंयुक्तां पश्येत्कामी न कामिनीम् । एवं हि मानसं तस्यां विरज्येतास्य निश्चितम् ॥१४९ अत्यालोकादनालोकात्तथाऽनलपनादपि । प्रवासमतिमानाच्च त्रुटयति प्रेम योषिताम् ॥१५० न प्रीतिवचनं दत्ते नालोकयति सुन्दरम् । उक्ता धत्ते क्रुधं द्वेषन्मित्रद्वेषं करोत्यलम् ॥१५१ विरहे हृष्यति व्याजादोामपि करोति च । योगे सीदति सा बाधवदनं मोटपत्यथ ॥१५२ शेते शय्यागता शीघ्र स्पर्शादुद्विज्यते तराम् । कृतं किमपि न स्तौति विरक्तं लक्षणं स्त्रियः ॥१५३ विधम्भोक्ति पुमालम्भमाङ्गिक वैकृतं तथा । रतक्रीडां च कामिन्यां नापरी तु प्रकाशयेत् ॥१५४ कामिन्या वीक्ष्यमाणाया जुगुप्साजनकं बुधः । श्लेष्मक्षेपादि नो कुर्याद विरज्येत तथा हि सा ॥१५५ यह वात्स्यायनने कहा है । किन्तु वाग्भट्टने तो इस प्रकारसे कहा है वसन्त और शरद् ऋतुमें तीन दिनसे, वर्षा और ग्रीष्म ऋतुमें एक पक्षसे, काम-सेवन करे। किन्तु बलवान् पुरुष हेमन्त और शिशिर ऋतुमें अपनी कामेच्छाके अनुसार स्त्रीका सेवन करे ॥१४५।। ___ अति ईर्ष्या, अति प्रसंग, निदान और अति समागम ये चार कार्य कामिनी स्त्रीजनमें कामी पुरुषोंको नहीं करना चाहिए ॥१४६|| क्योंकि अति ईर्ष्यासे स्थियोंमें रोष प्रकट होता है, अति प्रसंगसे उद्वेग पैदा होता है, निदानसे लोभ जागता है और अति समागमसे निर्लज्जता आती है ।।१४७।। छींकती हुई जम्भाई लेती हुई, स्नान करतो हुई, खान-पान करती हुई, मूत्र-विमोचन करती हुई स्त्रीको, रजस्वलाको तथा अन्य पुरुषसे संयुक्त कामिनी स्त्रीको पुरुष कभी नहीं देखे । क्योंकि ऐसी दशाओंमें कामी पुरुषके देखने पर उसका मन उस स्त्रीमें विरक्त हो जायगा, यह निश्चित है ॥ ४८-१४९|| स्त्रियोंको अधिक देखनेसे, अथवा सर्वथा नहीं देखनेसे, वार्तालाप नहीं करनेसे, प्रवास करनेसे और अतिमानसे स्त्रियोंका प्रेम टूट जाता है ।।१५०॥ विरक्त स्त्रियोंके ये लक्षण जानना चाहिए-बोलनेपर भी प्रेमयुक्त वचन नहीं बोलती है, हर्ष-पूर्वक अच्छी तरहसे नहीं देखती है, कुछ कहनेपर क्रोधको धारण करती है, अपनेसे द्वेष करती हुई अपने मित्रोंके साथ भी बहुत अधिक द्वेष करती है, अपने विरह-कालमें हर्षित होती है और छलसे ईर्ष्या भी करतो है, अपना संयोग होनेपर अवसादको प्राप्त होती हुई अपने मुखको मोड़ लेती है, अपनी शय्यापर आते हा शीघ्र सो जाती है, स्पर्श करनेसे अत्यधिक उद्वेगको प्राप्त होती है और अपने द्वारा किये गये उत्तम कार्यको कुछ भी प्रशंसा नहीं करती हैं। ये सब विरक्त स्त्रीके लक्षण हैं ।।१५१-१५३।। स्त्रियोंको विश्वास-पूर्वक कही हुई बातको, पुरुषोंके साथ किये गये उपालम्भको, शारीरिक विकृतिको और रति-क्रीडाको अन्य स्त्रीके सामने प्रकाशित नहीं करना चाहिए ।।१५४।। अपनी ओर देखती हुई कामिनीके सम्मुख ग्लानि-जनक कफ-क्षेपणादि कार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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