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________________ धावकाचार-संग्रह निषिद्धं हि कुलस्त्रीणां गृहाद द्वार-निषेवणम् । वीक्षणं नाटकादीनां गवाक्षावस्थिति स्तथा ॥१६७ अङ्गप्रकटनं क्रोडां कौतुकं जल्पनं परैः । कर्मणा शीघ्रयातं च कुलस्त्रीणां न युज्यते ॥१६८ अङ्गप्रक्षालनाभ्यङ्गमर्दनाद्वर्तनोदिकम् । कदाचित्पुरुषै व कारयेयुः कुलस्त्रियः ॥१६० लिङ्गिन्या वेश्यया दास्या स्वैरिण्या कारकस्त्रिया। युज्यते नैव सम्पर्कः कदाचित् कुलयोषिताम् ।।१७० मङ्गलाय कियांस्तन्व्याऽलङ्कारो धार्य एव हि। प्रवासे प्रेयसि स्थानं युक्तं श्वश्वादिसन्निधौ ॥१७१ कोपोऽन्यवेश्मसंस्थानं सम्पर्को लिङ्गिभिस्तथा । उद्यानगमनं पत्युः प्रवासे दूषणं स्त्रियः ॥१७२ अञ्जनं भूषणं गानं नृत्यदर्शनमार्जनम् । धर्मक्षेपं च सारादिक्रीडां चित्रादिदर्शनम् ॥१७३ अङ्गरागं च ताम्बूलं मधुरं-द्रव्य-भोजनम् । प्रोषिते प्रेयसि प्रीतिप्रदमन्यच्च सन्त्यजेत् ॥१७४॥ ( युग्मम् ) सदैव वस्तुनः स्पर्श रजन्यां तु विशेषतः । सन्ध्याटनमुडुप्रेक्षा धातुपात्रे च भोजनम् ॥१७५ माल्याञ्जने दिनस्वापं दन्तकाष्ठं विलेपनम् । स्नानं पुष्टाशनादर्शालोकं मुञ्चेद् रजस्वला ॥१७६॥ युग्मम् । द्वेषभाव रखती है, वह गृहिणी गृहस्थ पुरुषको साक्षात् दूसरी गृह-लक्ष्मीके समान है ॥१६२-१६६।। कलीन स्त्रियोंका घरसे बाहिरके द्वारपर बैठना निषित है नाटक आदिका देखना. तथा खिड़की आदिमें बैठकर बाहिरको ओर झांकना, दूसरोंके सामने अपने अंगोंका प्रकट करना, क्रीड़ा करना, कोतुक-हास करना, दूसरोंके साथ बोलना और कार्यसे शीघ्र जाना भी कुलीन स्त्रियोंके योग्य नहीं है ॥१६७-१६८॥ कुलीन स्त्रियोंको पर-पुरुषोंके द्वारा अपने अंगका प्रक्षालन उवटन-तैल-मर्दन, मालिश आदि कदाचित् भी नहीं कराना चाहिए ॥१६९॥ वेष-धारिणी स्त्रीके साथ, वेश्या, दासी, व्यभिचारिणी और व्यभिचार करानेवाली स्त्रीके साथ कुलीन स्त्रियोंका सम्पर्क करना कभी भी योग्य नहीं है ॥१७०॥ विवाहिता कुलवधूको मंगलके लिए कितना ही अलंकार धारण ही करना चाहिए। तथा पतिके प्रवासमें जानेपर सासु आदिके समीप अवस्थान करना चाहिए ।।१७१।। पतिके प्रवासकालमें कोप करना, अन्यके धरमें रहना, वेष-धारिणी स्त्रियोंके साथ सम्पर्क रखना और उद्यान आदिमें जाना ये सब स्त्रीके दूषण हैं ॥१७२।। पतिके परदेशमें रहते समय लोंमें अंजन लगाना, आभूषण पहिरना, गान करना, नृत्य देखना, शरीरका रगड़-रगड़करके प्रमार्जन करना, धर्म-कार्यमें हस्तक्षेप करना, शतरंज-गोट आदि खेलना, चित्र आदिका देखना, शरीरका चन्दनादिसे विलेपन करना, पान खाना, मधुर मिष्ट भोज्य द्रव्योंका भोजन करना एवं इसी प्रकारके अन्य प्रीति-प्रदान करनेवाले कार्य कुलीन स्त्रीको सर्वथा छोड़ना चाहिए ॥१७३-१७४|| दिनके समय सदा ही सभी वस्तुओंका स्पर्श करना, और रात्रिके समय तो विशेषरूपसे स्पर्श करना, सन्ध्याके समय इधर-उधर घूमना, नक्षत्रोंका देखना, धातुके पात्रमें भोजन करना, माला धारण करना, नेत्रोंमें अंजन लगाना, दिनमें सोना, लकड़ीकी दातुन करना, विलेपन करना, स्नान करना, पौष्टिक भोजन करना और दर्पणमें मुखको देखना, ये सर्व कार्य रजस्वला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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