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________________ कुन्दकुन्द श्रावकाचार अजीवप्रसवस्तोकप्रसवस्वसृमातृका । रसवत्यादिविज्ञानरहितेदृक्कुमारिका ॥११४ दुःशीला दुभंगा बन्ध्या दरिद्रा दुःखिताधमा । अल्पायुविधवा कन्या स्यादेभिर्दुष्टलक्षणैः ॥११५ (विंशत्या कुलकम् ) उपाङ्गमथवाङ्ग स्याद्यवीयं बहुरोमकम् । वर्जयेत्तां प्रयत्नेन विषकन्यां महोदरीम् ॥११६ कटिकृकाटिका शीर्षोदरभालेषु मध्यगः । नासान्तेऽशुभः स्यादावर्तः सृष्टिगोऽपि सन् ॥११७ यावर्ता वामभागेऽपि स्त्रीणां संहारवृत्तये । न शुभा शुभभाले च दक्षिणाङ्गे ससृष्टितः ॥११८ देवोरगनदोशेलवक्षनक्षत्रपक्षिणाम् । श्वपाक-प्रेष्यभीष्माणोसज्ञापावनितां त्यजेत् ॥११९ घराधान्यलतागुल्मसिंहव्याघ्रफलाभिधाम् । त्यजेन्नारों भवेदोषा स्वैराचारप्रिया यतः ॥१२० नापरोक्ष्य स्पृशेत्कन्यामविज्ञातां कदाचन । निघ्नन्ति येन योगैस्ताः कदाचिद्विषनिर्मितः ॥१२१ महौषधप्रयोगेण कन्या विषमयो किल । जातेति श्रूयते जेया तेरेतैः सापि लक्षणैः ॥१२२ यस्याः केशांशुकस्पर्शान्म्लायन्ति कुसुमस्रजा । स्नानाम्भसि विपद्यन्ते बहवः क्षुद्रजन्तवः ॥१२३ वाली हो, कुल-परम्परागत रोगोंसे व्याप्त हो, वर्मसे विद्वेष करनेवाली हो, अथवा पतिके धर्मसे भिन्न अन्य धर्ममें संलग्न रहनेवाली हो, तथा नीच कर्म करने में संलग्न रहती हो, निर्जीव सन्तानको प्रसव करनेवाली हो, या अल्पप्रसववाली या बहिनोंको प्रसव करनेवाली जिसको माता हो, और जो रसोई बनाने आदि स्त्रियोंचित कलाओंके विज्ञानसे रहित हो, ऐसी कुमारी कन्याका वरण नहीं करना चाहिए। क्योंकि इन उपयुक्त खोटे लक्षणोंसे वह कन्या दुःशील, दुर्भागिनी, वन्ध्या, दरिद्र, दुःख भोगनेवाली अधम, अल्पायु और विधवा होती है ॥९६-११५॥ जिसका अंग अथवा उपांग यदि बहुत रोमोंवाला हो और बड़ा उदर हो, ऐसी विषकन्याको प्रयत्न-पूर्वक छोड़े, अर्थात् उसके साथ विवाह-सम्बन्ध न करे ॥११६॥ जिसकी कटि कृकाटिका (गल-घटिका) के समान हो, शिर, उदर और ललाटमें मध्यवर्ती और नासिकाके अन्तमें जन्मसे उत्पन्न आवर्त (दक्षिणावर्त्त रोमावलो) अशुभ माना गया है ।।११७।। स्त्रियोंके वामभागमें होनेपर भी आवर्त संहारवृत्तिके सूचक होते है। उत्तम ललाटमें भी आवर्त शुभ-सूचक नहीं होते हैं। तथा दाहिने अंगमें तो जन्मजात आवर्त स्त्रियोंके अशुभ हो होते हैं ॥११८।। देव, सर्प, नदी, पर्वत, वृक्ष, नक्षत्र, पक्षी, श्वपाक (चाण्डाल) दास, एवं भीष्म (भयकारी) संज्ञावाले नामोंको धारक स्त्रीका भी परित्याग करे ॥११९।। धरा (पृथिवी) धान्य, लता, गुल्म, सिंह, व्याघ्र और फलोंके नामवाली स्त्रीका भी परित्याग करे, क्योंकि उक्त प्रकारके नामोंको धारण करनेवाली स्त्री दोपयुक्त और स्वच्छन्द आचरण-प्रिय (व्यभिचारिणी) और स्वेच्छाचारिणी होती है ॥१२०॥ अविज्ञात कन्याको परीक्षा किये बिना कदाचित् भी स्पर्श न करे। क्योंकि ऐसी अज्ञात या अपरिचित कन्याएं कभी-कभी विष-निर्मित योगोंके द्वारा स्पर्श करनेवाले पुरुषोंको मार डालती हैं ॥१२१॥ महाऔषधियोंके प्रयोगसे कन्या विषमयी बना दी जाती है, ऐसा वात्स्यायन शास्त्र आदिमें सुना जाता है और उसे निम्नोक विष-प्रदर्शक लक्षणोंसे जान लेना चाहिए ॥१२२॥ अब उन लक्षणोंको कहते हैं जिसके शिरके केशोंके ऊपर ओढ़े हुए वस्त्रके स्पर्शसे फूलमालाएं मुरझा जाती हैं, जिसके स्नानके चलमें बहुतसे छोटे-छोटे बन्तु मर जाते हैं, जिसकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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