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________________ बावकाचार-संग्रह नियन्ते मत्कुणास्तल्पे तया यूकास्तु वाससि । वातश्लेष्मव्यथामुक्ता या च पित्तोदयान्विता ॥१२४ भौमार्कशनिवाराणां वारः कोऽपि भवेद्यदि । तवाश्लेषाशतभिषकृत्तिकानां च भं यदि ॥१२५ द्वावशी वा द्वितीया वा सप्तमी वा तिथिर्यदि । ततस्तत्र सुता जाता कोयते विषकन्यका ॥१२६ गुरुशिष्यसुहृत्स्वामिस्वजनाङ्गनया सह । मातृजामि (?) सुतात्वेन व्यवहर्त्तव्यमुत्तमैः ॥१२७ सम्बन्धिनी कुमारी च लिङ्गिनी शरणागता । वर्णाधिका च पूज्यत्वसङ्कल्पेन विलोक्यते ॥१२८ सदोषां बहुलोमां च बहुप्रामान्तरप्रियाम् । अनीप्सितसमाचारां चञ्चलां च रजस्वलाम् ॥१२९ अशौचां होनवर्णां चातिवृद्धां कौतुकप्रियाम् । अनिष्टां स्वजनद्विष्टां सगी नाश्रयेत् स्त्रियम् ॥१३० परस्त्री विधवा भर्ना त्यक्ता त्यक्तव्रतापि च । राजकुलप्रतिबद्धा संत्याज्या यत्नतो बुधैः ॥१३१ दुर्गा-दुर्गतिदूतीषु वैरचित्रकभित्तिषु । साधुवाददुशस्त्रीषु परस्त्रोषु रमेत कः ॥१३२ जगत्समक्षं स्त्रीपुम्से विवाहे दक्षिणं करम् । अन्योन्यव्यभिचाराय दत्तं किल परस्परम् ॥१३३ ततो व्यभिचरतो तो निजपुण्यं विलुम्पतः । अन्योन्यघातको स्यातां परस्त्रीपुङ्गवावपि ॥१३४ बाला लेखनकैः कालदतैर्दयफलाशनैः । मोदते यौवनस्था तु वस्त्रालङ्करणादिभिः ॥१३५ शय्यापर मत्कुण (खटमल) मर जाते हैं, तथा जिसके वस्त्र पर यूक (जं) मर जाते हैं, जो वात और कफ-जनित व्याधियोंसे मुक्त रहती है, और जो पित्तके उदयसे संयुक्त रहती है. मंगल, रवि और शनिवारमेंसे यदि कोई दिन हो, तथा आश्लेषा, शतभिषा और कृतिका नक्षत्र उसदिन हो, तथा द्वादशी, द्वितीय या सप्तमी तिथि हो, ऐसे बार, नक्षत्र और तिथिके योगमें जो उत्पन्न हुई हो तो वह विष कन्या कहीं जाती है, ऐसा जानना चाहिए ॥१२३-१२६।। गुरु, शिष्य, मित्र, स्वामी और स्वकुटुम्बी जनोंकी स्त्रियोंके साथ यथा सम्भव माता, बहिन और पुत्रीके रूपमें उत्तम जनोंको व्यवहार करना चाहिए ॥१२७।। अपने रिश्तेदारीसे सम्बन्ध रखने वाली स्त्रीको, कुमारी कन्याको, तापस वेष धारिणीको, शरणमें आई हुई को और अपने वर्णसे ऊँचे वर्ण वाली स्त्रीको पूज्यपनेके भावसे देखना चाहिए ॥१२८॥ सदोष स्त्रीका, बहुत लोमवाली स्त्रीका, अन्य अनेक ग्रामवालोंको प्रिय स्त्रीका, अनिच्छित आचरण करने वालो, चंचल स्वभाववाली, रजस्वला, अशौचवती, हीनवर्णवाली, अतिवृद्धा, कौतुक प्रिय स्त्रीका, अनिष्ट करने वाली एवं स्वजनोंसे द्वेष करने वाली स्त्रीका तथा गभिणी स्त्रीका कभी आश्रय नहीं लेना चाहिए ॥१२९-१३०॥ परायो स्त्री, विधवा, पतिद्वारा छोड़ी हुई, व्रतोंका परित्याग करने वाली और राजकुलसे संबद्ध स्त्रोका ज्ञानी जनोंको प्रयत्न पूर्वक परित्याग करना चाहिए ॥१३१॥ जो दुष्ट स्वभाववाली है, दुर्गतिमें ले जानेके लिए दूतीका काम करती है, ऐसी स्त्रियोंमें, तथा बैर रखनेवालोंकी स्त्रियोंमें चित्र-लिखित एवं भित्तियोंमें उत्कीर्ण या चित्रित स्त्री-चित्रोंमें, साधुवाद अर्थात् प्रशंसाके योग्य कार्यसे द्रोह करनेवाली और शस्त्र-धारण करनेवाले पुरुषोंकी स्त्रियोंमें तथा पर-स्त्रियोंमें कौन बुद्धिमान् रमण करेगा? कोई भी नहीं ॥१३२।। विवाहके अवसरपर लोगोंके समक्ष जिस स्त्री-पुरुषका दाहिना हाथ परस्पर एक दूसरेके साथ काम-सेवनके लिए दिया गया है, वे दोनों यदि परस्त्री या पर पुरुषके साथ व्यभिचार करते हैं तो वे अपने पुण्यका ही विलोप करते हैं, वे दोनों परस्पर एक दूसरेके घातक हैं और उन्हें परस्त्री और परपुरुषके सेवनमें शिरोमणि जानना चाहिए ॥१३३-१३४।। बाला स्त्री समयपर दी गई लिखने-पढ़ने और खेलनेको वस्तुओंसे, तथा दिये गये फलोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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