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________________ अवकाचार-संग्रह अष्टादशाङ्गुलिन्यूनाधिकवक्षोरुहान्तरा । तिलकं लक्ष्म वा श्यामं विभ्राणा वामकस्तने ॥१०१कुचे वराङ्गन्पार्श्वे च वामे चोच्चैर्मनाक्तितः । नारी-प्रसूतिनी नारी दक्षिणे तु नरप्रसू ॥१०२ सङ्कीर्णपृयुलप्रोच्चनिर्मा सांसयुतापि वा । स्यूलोज्चकुटिल स्कन्धान्यमूनिमांसकुक्षिका ॥ १०३ मेघवल्लघुग्रीवा च दीर्घप्रोवा च कोटवत् । व्याघ्रास्या श्यामचिबुका हास्ये कूपकपोलिका ॥१०४ श्यामश्वेतस्थूलजिह्वातिहासा काकतालुका । जम्बूत रुफलच्छाया दशनावलिपिच्छिका ॥१०५ आकेकराक्षिमार्जारनेत्रा पारावतेक्षणा । वृष्ण्याक्षी चञ्चलालोकातिमौना बहुभाषिणी ॥१०६ स्थूलाघरशिरावक्त्रनासिका सूर्पकणिका । हीनाघरी प्रलम्बोष्ठी मिलद्युग्मिका तथा ॥ १०७ अतिसङ्कीर्णविवमा दीर्घा रोमसवालिका । अङ्गुलीत्रितयावूनाषिक भालस्थलापि वा ॥ १०८ भालेनाखण्डरेखण रेखा होनातिनिन्दिता । रूक्षस्थूलस्फुटिताग्र कटचुल्लङ्घिकचयोन्चयम् ॥१०९ एकस्मिन् कूपके स्थूलबहुरोमसमन्विता । सुपुष्पनखरा श्वेतनखा सूर्पनखी तथा ॥११० उत्कटस्नायुदुद्दर्शकपिलद्युतिधारिणी । अतिश्यामातिगौरी चातिस्थूला चातितन्विका ॥१११ अति ह्रस्वातिदीर्घा च विषमाङ्गाधिकाङ्गिका । होनाङ्गा शौचविकला रुक्षकर्कशकाङ्गिका ॥ ११२ सचरिष्णुरुगाघ्राता धर्मविद्वेषिणी तथा । धर्मान्तररता चापि नोचकमरतापि च ।। ११३ ५२ बलिभंगवाली, रोमावत्तंयुक्त उन्नत कुक्षिको धारण करती हो, जिसके स्तनोंके मध्यभागका अन्तर अठारह अंगुलियोंसे कम या अधिक हो, वाम स्तनपर काला तिल या लक्षण (चिह्न) धारण करती हो, दोनों स्तन और वरांग (योनि) के पार्श्वभाग वाम हों उच्च और कुछ विरल हों, ऐसी स्त्री कन्याओंको जन्म देनेवाली होती है, यदि दोनों स्तन और वरांगके पार्श्व भाग दक्षिणकी ओर झुके हुए हों तो वह पुत्रों को जन्म देनेवाली होती है । जिस कन्या के कन्धे संकीर्ण हों, मोटे, ऊंचे और मांस- रहित हों, अथवा स्थूल, उच्च और कुटिल कन्धे हों, कुक्षि मांसरहित शुष्क हो, मेंढके समान लघु ग्रीवा हों अथवा कोट (ऊंट) के समान दीर्घग्रीवा हो, व्याघ्रके समान मुख हो, श्यामवर्णकी चिबुक (ठोड़ी) हो, हंसते समय जिसके कपोलों ( गालों पर कूप जैसे गड्ढे पड़ जाते हों, जिसकी जीभ काली, या श्वेतवर्णकी और मोटी हो, जो अधिक हँसती हो, जिसका तालुभाग काकके समान हो, जम्बु-वृक्षके फल जामुनके सदृश, जिसकी दन्त पंक्तिका ऊपरी भाग (मसूड़े) हो जिसके नेत्र केकर (कैरे) मार्जार, पारावत ( कपोत और मेढ़े) के सदृश हों, नेत्रोंसे तृष्णा झलकती हो, चंचल हो, अधिक मौन रहती हो, अथवा अधिक बोलनेवाली हो, जिसके अक्षर (नीचे ओठ) मोटे हों, नसाजाल, मुख और नासिका स्थूल हों, सूपेके समान कानवाली हो, हीन अवरवाली हो, या लम्बे ओठोंवाली हो, जिसकी दोनों भोंहें परस्पर मिल रही हों, अथवा भोंहें अतिसंकीर्ण, विषम और दीर्घं हों, शरीरपर रोमोंकी प्रचुरता हो, जिसका भालस्थल ( ललाट) तीन अंगुलसे कम या अधिक हो, अखंड रेखावाले ललाटसे जिसकी रेखाहीन और अतिनिन्दित हों, जिसके शिरके केश रूक्ष, स्थूल हों, जिनके अग्रभाग स्फुटित हों और कटि-भागका भी एक-एक रोम कूप बहुतसे रोमोंसे युक्त हो, जिसके नख सुपुष्पके समान हों, अथवा श्वेत नखवाली हो, या सूपेके समान नख हों, जिसकी स्नायु उत्कट हों, दुर्दर्शनीय कपिल वर्णकी कान्तिको धारण करनेवाली हो, अत्यधिक श्याम वर्णवाली हो, या अधिक गोरी हो, अधिक मोटी हो, या अधिक पतली हो, अति ठिगनी हो, या अतिलम्बो हो, विषम अंगवाली हो, या अधिक अंगवाली हो, या हीन अंगवाली हो, शौच- पवित्रतासे रहित हो, रूक्ष और कर्कश बंग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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