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________________ कुन्दकुन्द श्रावकाचार अष्टमाद् वर्षतो यावत् वर्षमेकादशं भवेत् । तावत्कुमारिका लोके न्याय्यमुद्वाहमहति ॥८८ पादाङ्गुल्यौ सुजङ्घ च जानुनी मेढ़मुष्कको । नाभिकटचौ च जठरं हृदयं तु स्तनान्वितम् ।।८९ हस्त-स्कन्धौ तथैवोष्ठ-कन्धरे दृग्भ्रुवौ तथा । भालमौली वश क्षेत्राण्येतान्याबालतोऽङ्गके ॥९० एकैकक्षेत्रसम्भूतलक्षणं चाप्यलक्षणम् । दशभिर्दशभिर्वः स्त्रीभ्यो दत्ते निजं फलम् ॥९१ । यत्पदाङ्गुलयः क्षोणी कनिष्ठाद्याः स्पृशन्ति न । एकद्वित्रिचतुःसङ्ख्यान् कमान्मारयते पतीन् ॥९२. यत्पदाङ्गुलिरेकापि भवेद्धीना कथञ्चन । येन केनापि साधसा प्रायः कलहकारिणी ॥९३ अल्पवृत्तेन वक्रेण शुष्केण लघुनापि च । चिपिटेनापि रक्तेन पादाङ्गुष्ठेन दूषिता ॥९४ कृपणा स्यान्महापाणिर्वीर्घा पाष्णिस्तु कोपना।। दुःशीला समपाणिश्च निन्द्या विषमपाष्णिका ॥९५ उच्छल लिचरणा सर्वस्थूलमहागुलिः । बहिविनिष्पतत्पादा दीर्घपादप्रदेशिनी ॥९६ विरलागुलिको स्थलो पृथू पादौ च विभ्रती । सशब्दगमना स्थूलगुण्या स्वेदयुताघ्रिका ।।९७ उद्घद्धपिण्डिका स्थूलजङ्घा वायसङ्घिका । निर्मासघटबुध्नाभविश्लिष्टकृशजानुका ॥९८ बहुधारा प्रस्त्रविका शुष्कसङ्कटकटयपि । चतुर्विशतितो होनाधिकाङ्गुलिकटी तथा ।।९९ मृदङ्गायवकूष्माण्डोदरिका उच्चनाभिका । वधती बलिभं रोमात्तिनं कुक्षिमुन्नतम् ॥१०० रूपवती हो और जिसके शरीरका कोई भी अंग वंगित न हो, ऐसी कन्याको वरण करना चाहिए ।।८७॥ आठ वर्षसे लेकर ग्यारह वर्ष तककी कन्या लोकमें कमारी कहलाती है, वह न्याय-पूर्वक विवाहके योग्य होती है ।।८८।। पैरोंकी अंगुलियाँ, दोनों उत्तम जंघाएँ, दोनों घुटने और अण्डकोषयुक्त गृह्यस्थान नाभि-कटिभाग, उदर, स्तन-युक्त हृदय ( वक्षः स्थल ) हाथ, कन्वे, तथा ओठ और कन्धरा ( पीठ भाग ) नेत्र-भृकुटी, भाल और मस्तक ये दश क्षेत्र लड़कीके अंगमें बाल्यकालसे होते हैं ।।८९-९०॥ उक्त एक-एक क्षेत्रमें उत्पन्न शुभ लक्षण और कुलक्षण दश-दश वर्षों के द्वारा स्त्रियोंके लिए अपना-अपना फल देते हैं ॥११॥ कनिष्ठाको आदि लेकर जिसके अंगुलियाँ पृथ्वीका स्पर्श नहीं करती है, वह क्रमसे एक, दो, तीन और चार पतियोंको मारती है ॥९२॥ जिस कन्याके पैरको एक भी अंगुली यदि किसी प्रकारसे हीन होती है तो वह प्रायः जिस किसी भी पुरुषके साथ कलह करने वाली होती है ॥९३॥ जिसके पैरका अंगूठा अल्प गोलाई वाला हो, वक्र हो, शुष्क हो, लघु हो, चिपटा हो और रक्त वर्ण वाला हो वह कन्या दोष युक्त होती है ।।९४|| मोटी एडीवाली कन्या कृपण होती है। ऊँची एड़ीवाली क्रोधी स्वभावकी होती है, समान एडीवाली कुशीलिनी होती है और विषम एड़ीवालो निन्दनीय होती है ।।९५॥ चलते समय जिसके पैरोंसे धूलि उछलती हो, जिसकी अंगुलियां स्थूल और बड़ी हों, चलते हुए जिसका पैर बाहिरकी ओर पड़ता हो, जिसके पैरकी प्रदेशिनी (अंगूठेके पासवाली अंगुली) लम्बी हो, अंगुलियां दूर-दूर हों स्थूल और मोटे पैरोंको धारण करती हो, गमन करते समय जिसके पैरोंसे आवाज आती हो, स्थूल गुण्या ( एड़ी ) हो, प्रस्वेद-युक्त पैर वाली हो, जिसकी पिण्डिका उद्घद्ध (ऊपर उठी) हो, जंघाएँ स्थूल हों, काकके समान जंघाएँ हो, जिसकी जांघे मांस-रहित, घड़ेके समान उतार-चढ़ाववाली, परस्पर श्लेष-रहित और कृश जानुएँ हों, जिसके मूत्र की अनेक धाराएं निकलती हों, जिसकी कटि सूखी और संकीर्ण हो, तथा चौवीस अंगुलसे हीन या अधिक कमरवाली हो, मृदंग, यव, और कूष्माण्डके समान उदर वाली हो, ऊँची नाभिवाली हो, जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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