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________________ ( १० ) कल्पना करके उन्हें लाल स्याहीसे उसीपर लिखा था वे भी अधिकांश अशुद्ध थे । उनकी इस प्रेस कापीके आधारपर ही प्रस्तुत उपासकाध्ययनकी पाण्डुलिपि तैयार की गयी। जहाँ तक संभव हुआ, वहाँ तक अशुद्ध पाठोंको शुद्ध करनेका प्रयत्न किया गया, फिर भी अनेक अशुद्ध पाठोंको प्रश्न वाचक चिह्न लगाकर ज्यों-का-त्यों रखा गया है । जैसे १. सागार-नागारसुधर्ममार्गम् ( भा० ३ पृ० ३७३ श्लो० ५३ ) २. भव्यो वरसम्यकत्वम् ( पृ० ३८९ श्लोक २४५ ) आदि " ३. प्रथम प्रतिमाका नाम कहीं 'दर्शनीक' और कहीं 'दर्शनिक' दिया है । ( भा० ३ पृ० ३७३ श्लोक ५४, ५७ आदि) । ४. सन्धिके नियमों का उल्लंघन तो अनेक स्थानोंपर पाठकोंको स्वयं ही दृष्टि- गोचर होगा । ५. प्रयत्न करने पर भी श्लोक १०२ के प्रथम और तृतीय चरणके अशुद्ध पाठोंको शुद्ध नहीं किया जा सका । अतः उन पदोंका अर्थ भी नहीं दिया गया है । ( भा० ३ पृ० ३७७ श्लोक १०२) इस उपासकाध्ययनके बीचका एक पत्र श्री क्षुल्लकजीको भी प्राप्त नहीं हुआ, अतः श्लोक ३१० से लेकर ३३९ तकके ४० श्लोक छूटे हुए हैं' । प्रकरणके अनुसार उनमें दानका वर्णन होना चाहिए । उक्त त्रुटियोंके होनेपर भी प्रस्तुत संग्रहमें उसे स्थान देनेका कारण तद्गत कुछ विशेषताएँ हैं, जिनका अनुभव पाठकोंको उसका स्वाध्याय करनेपर स्वयं होगा । इसके रचयिता श्री जिनदेव हैं। उन्होंने अपने नामका उल्लेख प्रत्येक परिच्छेदके अन्तमें स्वयं किया है और अपने इस उपासकाध्ययनको भट्टारक श्री जिनचन्द्रके नामसे अंकित किया है । इस उपासकाध्ययनके अन्तमें श्री जिनदेवने अपनी प्रशस्ति दी है, २५ श्लोक होनेपर भी वह अपूर्ण है । क्षुल्लकजीको संभवतः प्रतिका अंतिम पत्र भी प्राप्त नहीं हुआ है । जो प्रशस्ति मिली है, उससे उनके विद्यागुरु यशोधर कवि ज्ञात होते हैं, जिनके प्रसादसे जिनदेवने आगम, सिद्धान्त, पुराण, चरित आदिका अध्ययन किया था । प्रशस्तिमें यशोधर कविका विस्तृत परिचय दिया गया है, किन्तु उसके अपूर्ण प्राप्त होनेसे जिनदेवके विषयमें कुछ भी ज्ञात नहीं होता । २२. पुरुषार्थानुशासन- गत श्रावकाचार- र-- पं० गोविन्द रचित पुरुषार्थानुशासन नामक यह ग्रंथ अभी तक अप्रकाशित है । सरस्वती भवन ब्यावरकी क्रमांक ८० की हस्तलिखित प्रतिपरसे इसकी प्रेस कापी की गई। इसकी पत्र संख्या ८६ और आकार १३ x ८ इंच है । प्रति पृष्ठ पंक्ति संख्या १५ और प्रति पंक्ति अक्षर संख्या ३७-३८ है । यह प्रति वि० सं० १९८४ की लिखी है और बहुत अशुद्ध है । इसका संशाधन बम्बई भवनकी प्रतिसे किया गया जो कि वि० सं० १८७६ की लिखी है और बहुत शुद्ध है । इसका आकार १०५ इंच है । पत्र संख्या ६२ प्रति पृष्ठ पक्ति १२ और प्रति पक्ति अक्षर संख्या ३३-३४ है । पुरुषार्थानुशासनमें चारों पुरुषार्थों का वर्णन है । उसमेंसे धर्म पुरुषार्थ के अन्तर्गत जो श्रावक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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