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________________ ( श्लोक १५४-१५५ ) 'क्षमावान' के स्थानपर 'क्ष्मावान्' ( श्लोक १७० ) तथा 'मित्राणि'के स्थानपर 'मित्राः' ( श्लोक ३४१ ) आदि । कितने ही स्थलोंपर प्रयत्न करनेके बाद भी कोई शुद्ध पाठ ध्यानमें नहीं आनेपर ( ? ) प्रश्नवाचक चिह्न लगा दिया गया है । यथा-श्लोक २०, २८, ६०, ९१, १८८, २५८, २६०, २६९, २९४, ४०१, ४७४, ५२० आदि । इस प्रकारके स्थलोंपर प्रकरणके अनुसार अर्थकी संगति बैठाई गई है, पर वह सर्वथा संगत है, यह नहीं कहा जा सकता। श्लोक ४५८ में 'चटन्ति सर्वार्थसिद्धि ते'का अर्थ यदि सर्वार्थसिद्धि विमान किया जाय तो वह आगमके विरुद्ध जाता है, क्योंकि शिक्षाव्रतोंका निरतिचार-पालक श्रावक सर्वार्थसिद्धिविमानमें उत्पन्न नहीं हो सकता । अतः 'सर्व असर्थकी सिद्धिको प्राप्त करता है ऐसा अर्थ किया गया है। व्रतोद्योतन श्रावकाचार यह नाम ग्रन्थके आद्योपान्त अध्ययन करनेपर सार्थक प्रतीक होता है, क्योंकि श्रावकोंके आचार-विचारका तो प्रायः वही वर्णन है, जो कि अन्य श्रावकाचारोंमें पाया जाता है। पर इसमें प्रारम्भसे ही भावोंकी प्रधानता एवं उज्ज्वलतापर अधिक बल दिया गया है और भावोंकी विशद्धिसे ही व्रतोंका उद्योत ( प्रकाश ) होता है। अतः यह व्रतोंका उद्योत करनेवाला श्रावकाचार समझना चाहिए। २०. श्रावकाचारसारोद्धार-इसकी हस्तलिखित प्रति हमें श्री १०५ क्षुल्लक सिद्धसागरजीकी कृपासे प्राप्त हुई, जो कि जयपुरके किसी भंडार की है। इसका आकार १२॥ ४५ इंच है । पत्र संख्या ३८ है। प्रति पृष्ठ पंक्ति संख्या ११ है और प्रति पंक्ति अक्षर-संख्या ५४-५५ है। इनके रचयिता श्रीपद्मनन्दी हैं। प्रतिके अन्तमें केवल इतना लिखा है 'संवत् १५८० वर्षे शाके १४४५ प्रवर्तमाने' इससे यह ज्ञात नहीं होता है कि यह रचनाकाल है, अथवा प्रतिलेखनकाल । चूँकि भट्टारक सम्प्रदाय पृ० ९६ में दिये गये बलात्कारगण-उत्तरशाखा-कालपटके अनुसार भट्टारक पद्मनन्दीका समय सं० १३८५-१४५० है। इसके तीन शिष्य थे। उनमेंसे भ० शुभचन्द्र दिल्ली-जयपुर शाखाके, भ० सकलकीत्ति ईडर शाखाके और भ० देवेन्द्रकीति सूरत शाखाके पट्टपर आसीन हुए । इनका क्रमसे समय इस प्रकार है-- १. भ० शुभचन्द्र सं० १४५०-१५०७ । २. भ. सकलकोत्ति सं० १४५०-१५१० । ३. भ० देवेन्द्रकीर्ति सं० १४५०-१४९३ । उक्त तीनोंके समयको देखते हुए यही ज्ञात होता है कि ऊपर जो समय दिया गया है, वह श्रावकाचार सारोद्धारकी प्रति लिखनेका समय है। इस श्रावकाचारकी रचना सं० १४५० के पूर्व ही हो चुकी थी, क्योंकि पट्टावलियोंके अनुसार भट्टारक पद्मनन्दीका समय वि० सं० १३८५ से १४५० सिद्ध होता है। २१. भव्य धर्मोपदेश उपासकाध्ययन--इसकी मूल प्रति किसी भी शास्त्र-भंडारसे प्राप्त नहीं हो सकी । किन्तु श्री क्षुल्लक स्वरूपानन्दजीके हाथसे लिखी प्रेस कापी उनकी कृपासे अवश्य प्राप्त हुई है । पर यह बहुत अशुद्ध थी और अनेक स्थानोंपर उन्होंने स्वयं नवीन पाठोंकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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