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________________ कुन्दकुन्द श्रावकाचार नासिका-नेत्र-वन्तौष्ठ-नखकर्णाधिका नराः । समा समेन विज्ञेया विषमा विषमेन तु ॥२४ गतिस्वरास्थित्वग्मांसनेत्रश्रोतोऽङ्गकैर्न णाम् । यानमाज्ञा धनं भोगः सुखं योषित क्रमाव भवेत् ॥२५ आवर्तो दक्षिणे भागे दक्षिणे शुभकृन्न्दृणाम् । वामो दामेन निन्द्यश्च दिगन्यत्वे तु मध्यमः ॥२६ 'उत्पातः पटिको लक्ष्म तिलको मसको व्रणः । स्पर्शनं स्फुरणं पुंसः शुभायाङ्गे प्रदक्षिणे ॥२७ वामभावं पुनर्वामे त्रिशकस्य नरस्य च । घातोऽपि दक्षिणे कैश्चिन्नस्याङ्गेऽशुभो मतः ॥२८ पृष्ठं पादौ च देहस्य लक्षणं चाप्यलक्षणम् । इतराद् बाध्यते तेन बलवत्फल दं भवेत् ॥२९ मणिबन्धात्परः पाणिस्तस्य लक्षणमुच्यते । तत्र चागुष्ठ एकः स्याच्चतस्रोऽङ्गुलयः पुनः ॥३० नामान्यासां यथार्थानि ज्ञेयान्यङ्गुष्ठतः क्रमात् । तर्जनी मध्यमानामा कनिष्ठा च चतुर्थिका ॥३१ अकर्मकठिनः पाणिर्दक्षिणो वीक्ष्यते नृणाम् । वामभ्रुवां पुनर्वामः स प्रशस्योऽतिकोमलः ॥३२ श्लाघ्य उष्णारुणोऽस्वेदोऽछिद्रः स्निग्धश्च मांसलः । श्लक्ष्णस्ताम्रनखो दीर्धागुलोको विपुलः करः ॥३३ नासिका, नेत्र, दन्त, ओष्ठ, नख, कान और पाद ये अंग जिनके समान हों, उन मनुष्योंको समस्वभावी जानना चाहिए। यदि ये अंग विषम हों तो उन्हें विषमस्वभावी जानना चाहिए ॥२४।। गति, स्वर, अस्थि, त्वक् (ऊपरी चमड़ी) मांस और नेत्रोंके स्रोत इन अंगोंके द्वारा क्रमसे मनुष्योंके यान-वाहन, आज्ञा, धन, भोग, सुख और स्त्री इनकी प्राप्ति होती है ॥२५॥ शरीरके दक्षिण भागमें यदि रोम-राजि-दक्षिण-आवर्त वाली हो, तो वे मनुष्योंके कल्याण-कारक होते हैं और यदि वह वाम-आवर्त हो, तो वह निन्दनीय होता है यदि वह अन्य दिशाकी ओर हो, तो मध्यम जानना चाहिए ॥२६॥ पुरुषके दक्षिण अंगमें यदि उत्पात (चोटका निशान) पटिक (फोड़ा आदिका चिह्न) लक्षण, तिल, मस्सा, व्रण (शस्त्रघात) स्पर्शन (छिपकली आदिका स्पर्श) और अंग-स्फुरण हो तो वह शुभसूचक है ॥२७॥ यदि ये सब वाम अंगमें हों तो वे अशुभ-सूचक होते हैं। तीस वर्षको अवस्थावाले पुरुषके उक्त फल जानना चाहिए। कितने हो आचार्य पुरुषके दक्षिण अंगमें घातको भी अशुभ मानते हैं ॥२८।। पीठ और दोनों पाद इनमेंसे यदि कोई शुभ लक्षण और कोई अशुभ लक्षणवाला हो तो वे परस्पर में एक दूसरेसे बाधित होते हैं। इनमें जो बलवान होता है वह फल-दायक होता है ॥२९॥ अब मणिबन्ध ( हाथ मूल ) से परवर्ती जो हस्ततल है, उसके लक्षण कहते हैं। उस हाथ में एक अंगूठा और चार अंगुलियां होती हैं ॥३०॥ अंगूठेसे लेकर कमसे इनके जैसे नाम हैं, वैसे ही इनके अर्थ भी जानना चाहिए । उनमेंसे पहिली अंगुलीका नाम तर्जनी है, दूसरीका मध्यमा, तीसरीका अनामा या अनामिका और चौथीका नाम कनिष्ठा है ।।३।। मनुष्योंका दाहिना हाथ विना कठोर कम किये ही कठिन देखा जाता है और वाम भृकुटीवाली स्त्रियोंका हाथ अतिकोमल और प्रशंसनीय होता है ।।३२।। जिसकी अंगुलियोंवाला हस्ततल अरुणवर्ण (गुलाबी) हो, स्निग्ध हो, छिद्र-रहित हो, मांसल हो, चिकना हो, ताम्रवर्णके नख हों, अंगुलियां लम्बी हों, और विशाल १. हस्तसं० पृ० ७७ श्लोक ७। २. हस्तसं० पृ० ७७ श्लोक ८। ३. हस्तसं० पृ० ७७ श्लोक १० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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