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________________ श्रावकाचार-संग्रह वक्षो वक्त्रं ललाट च विस्तीर्ण शस्यते त्रयम् । गम्भीरं त्रितयं शस्यं नाभिः सत्त्वं सरस्तथा ॥१२ कण्ठं पृष्ठं च लिङ्गच जङ्घयोर्युगलं तथा । चत्वारि यस्य ह्रस्वाणि पूजामाप्नोति सोऽन्वहम् ॥१३ स्वाङ्गलीपर्वभिः केश वंदन्तैम्त्ववापि च । सूक्ष्मकैः पञ्चभिर्मयो भवन्ति चिरजीविनः ॥१४ स्तनयोनेंत्रयोमध्यं वोदयं नासिका हन् । पन्त दीर्घाणि यस्य स्युः स धन्यः पुरुषोत्तमः ॥१५ नासा ग्रीवा नखाः कक्षा हृदयं च स्कन्धः सदा । षड्भिरम्युन्नतैर्मर्त्यः सदैवोन्नतिभाजनः ॥१६ नेत्रान्तरसृजा तालु नखरा चाघरोऽपि च । पाणिपादतले चापि सप्त रक्ताणि सिद्धये ॥१७ देहे प्रशस्यते वर्णस्ततस्नेहस्तस्तः स्वरः । अतस्तेज इतः सत्वमिदं द्वात्रिंशतोऽधिकम् ।।१८ सात्विकः सुकृती दानी राजसो विषयी भ्रमो। तामसः पातको लोभी सात्त्विको मानुषोत्तमः ॥१९ सदमः सुभगो नीलग सुस्वप्नः सनयः कविः । सूचयत्यात्मनः श्रीमान्नरः स्वर्गगमागमौ ॥२० निर्दम्भः सदयो दानी दान्तो दन्तः सदा ऋजुः । मत्यंयोनेः समुद्भूतो भावी चात्र नरः पुनः ॥२१ मायालोभक्षुषाऽऽलस्यबहारम्भादिचेष्टितैः । तिर्यग्योनिसमुत्पत्ति ख्यापयत्यात्मनः पुमान् ॥२२ सरोगः स्वजनद्वषो कटुवाग्मूर्खसङ्गकः । शास्ति स्वस्य गतायातं नरो नरकवमनि ॥२३ इच्छुक और तिगुनी अधिक वर्षोंकी आयुवाले पुरुषोंको अपनी कन्या नहीं देना चाहिए ॥११॥ बक्षस्थल, मुख और ललाट ये तीनों विस्तीर्ण (चौड़े) हों तो प्रशस्त माने जाते हैं। नाभि, सत्त्व और सरोवर ये तीनों गम्भीर हों तो प्रशंसनीय होते हैं ।।१२।। कण्ठ, पृष्ठ (पीठ) लिंग और जंघायुगल ये चारों जिसके ह्रस्व होते हैं, वह व्यक्ति प्रतिदिन पूजाको प्राप्त होता है ।।१३।। अपनी अंगुलियोंके पर्व (पोर भाग) केश, नख, दन्त और त्वक् (चमड़ा) ये पाँच यदि सूक्ष्म हों तो मनुष्य चिरजीवी होते हैं ॥१४॥ दोनों स्तनोंका मध्य भाग, दोनों नेत्रोंका मध्य भाग, दोनों भुजाएं, नासिका और हनू (ठोढ़ी ठुड्डी) ये पाँचों जिसके दीर्घ होते हैं, वह पुरुषोत्तम और धन्य है ॥१५॥ नासिका, ग्रीवा, नख, कक्षा (कांख) हृदय और कन्धा ये छह अंग यदि उन्नत होते हैं तो वह मनुष्य सदैव उन्नतिका पात्र होता है ॥१६॥ नेत्रोंका प्रान्त (कोण) भाग, जिह्वा तालु, नख, अधर ओष्ठ, हस्ततल और चरणतल ये सातों रक्त वर्ण हों तो वे अभीष्ट सिद्धिके कारण होते हैं ॥१७॥ शरीरमें वर्ण (रंग-रूप) प्रशंसनीय होता है, वर्णसे भी स्नेह (चिक्वणपना) उत्तम होता है । स्नेहसे स्वर श्रेष्ठ होता है, स्वरसे तेज श्रेष्ठ होता है और तेजसे सत्त्व उत्तम होता है । यह सत्त्व पूर्वोक्त बत्तीस लक्षणोंसे अधिक उत्तम माना जाता है ।।१८॥ सात्त्विक प्रकृतिवाला मनुष्य सुकृत करने वाला और दानी होता है, राजस प्रकृतिवाला अनुष्य विषयी और भ्रमस्वभावी होता है और तामस प्रकृतिवाला व्यक्ति पापी और लोभी होता है। इनमें सात्त्विक प्रकृतिवाला व्यक्ति पुरुषोंमें उत्तम माना जाता है ॥१९॥ ____ उत्तम धर्मका पालने वाला, सौभाग्यवान्, नीरोग, शुभ स्वप्नदर्शी, सुनीतिवाला, कवि और श्रीमान् मनुष्य अपने स्वर्गसे आगमन और गमनको सूचित करता है ॥२०॥ दम्भ-रहित, दया-युक्त, दानी, इन्द्रिय-जयी, उदार और सदा सरल स्वभावी व्यक्ति मनुष्ययोनिसे उत्पन्न हुआ है और आगामी भवमें भी वह पुनः मनुष्ययोनिमें ही उत्पन्न होनेवाला है ॥२१॥ मायाचार, लोभ-भूख-प्यास, आलस्य और बहुत आरम्भ आदि चेष्टाओंसे मनुष्य अपनी तिर्यग्योनिकी उत्पत्तिको प्रकट करता है ॥२२॥ सदा रोगी रहनेवाला, स्वजनोंसे द्वेष करनेवाला, कटुक वचन बोलने वाला, मूर्ख और मूोंकी संगति करनेवाला मनुष्य अपना गमन-आगमन नरकके मार्गमें सूचित करता है ॥२३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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