SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 239
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बावकाचार-संबह उक्तंचमा करेण करं पार्थ मा गण्डौ मा च चक्षुषो । जानुनी स्पृश राजेन्द्र भत्तंव्या बहवो यदि ।।५४ समानजातिशीलाम्यां स्वसाम्याधिक्यसंस्पृशाम् । भोजनाय गृहे गच्छन्न गच्छेदोषवतां गृहे ॥५६ मुमधुवध्यचौराणां कुटिलालिङ्गिवैरिणाम् । बहुवैरियुतां कल्पपालोच्छिष्टान्नभोजिनाम् ॥५७ कुकर्मजोविनामुग्रपतितासवपायिनाम् । रङ्गोपजीविविकृतिस्वाम्यविकृतयोषिताम् ॥५८ धर्मविक्रयिणां राज-महाराजविरोधिनाम् । स्वयं हनिष्यमानानां गृहे भोज्यं न जातुचित् ॥५९ अङ्गमदन-नीहारभारोत्क्षेपोपवेशिनाम् । स्नानाद्यं च कियत्कालं भात्वा कुर्यान्न बुद्धिमान् ॥६० भोजनान्तरं वामकटिस्थो घटिकाद्वयम् । शयीत निद्रया हीनं यद्वा पादशतद्वयम् ॥६१ वशताम्रपलावतपात्रे वृत्तीकृते सति । घटिकायां समुत्सेघो विधातव्यः षडगुले ॥६२ विष्कम्भं तत्र कुर्वीत प्रमाणो द्वादशाङ्गुलम् । षष्टयाम्भःपलपूरेण घटिका सद्धिरिष्यते ॥६३ । गंडस्थलोंका स्पर्श करे, न दूसरे हाथका स्पर्श करे और न जानु-जंघाओंका ही स्पर्श करे ॥५४॥ कहा भी है-हे पार्थ ( अर्जुन)। हाथसे हाथका स्पर्श न करो, न गंडस्थलोंका, न आँखों का और न दोनों जानुओंका ही स्पर्श करो। राजेन्द्र, यदि तुम्हारे आश्रित अनेक व्यक्ति भरणपोषणके योग्य उपस्थित (तो उनको विना भोजन कराये स्वयं भोजन न करो) हैं ।।५५॥ जो व्यक्ति तुम्हारी जाति और शीलसे समान हैं, अथवा जो अपनी समानतासे अधिकता वाले हैं और स्पर्श करनेके योग्य हैं उनके घर पर भोजनके लिए जावे। किन्तु दोष-युक्त पुरुषोंके घर भोजनके लिए न जावे ॥५६॥ जो व्यक्ति मरनेके इच्छुक हैं, वध करनेके योग्य हैं, चोर हैं, कुटिल है, कुलिंगी हैं, वैरी हैं, जिनके अनेक लोग शत्रु हैं, कल्पपाल ( मद्य-विक्रेता ) हैं, उच्छिष्ट (जूठे ) अन्नके खानेवाले हैं. खोटे कर्मों से आजीविका करने वाले हैं, उग्र हैं, पतित हैं, मद्य-पान करने वाले हैं, वस्त्रादि रंग करके जीवन-यापन करते हैं, विकार-युक्त है, जिनकी स्त्रियां भी विकार-युक्त हैं, धर्मको बेचने वाले हैं, राजा-महाराजाओंके विरोधी हैं, और जो स्वयं मारे जाने वाले हैं ऐसे लोगोंके घरपर कदाचित् भी भोजन नहीं करना चाहिए ॥५७-५९॥ इसी प्रकार जो शरीर-मर्दन करने वाले हैं, मल-मूत्रादिका भार क्षेपण करते हैं और जो उनके समीप निवास करते हैं उनके घर भी भोजन नहीं करना चाहिए। तथा बुद्धिमान् पुरुषको भोजन करके कुछ काल तक स्नानादि भी नहीं करना चाहिए ॥६०॥ - भोजनके पश्चात् वाम कटिस्थ होकर दो घटिका (घड़ी) तक निद्रा न लेकर विश्राम करे । अथवा दो सो पद- (कदम-) प्रमाण परिभ्रमण करे ॥६१।। . घटिकाका प्रमाण निकालनेकी विधि यह है-तांबेके दश पल ( माप विशेष ) प्रमाण छह अंगुल ऊंचा पात्र बनावे, उसका विष्कम्म । (विस्तार) बारह अंगुलका हो और उसके भीतर साठ चिह्न बनावे। उन सभी चिह्नोंके जलसे पूरित प्रमाण कालको सज्जन लोग एक घटी कहते हैं ।।६२-६३॥ विशेषार्थ-घटिकाका प्रमाण निकालनेकी विधि-तांबेके दशपल (मापविशेष ) प्रमाण यह अंगुल उँचाईके गोल आकारवाले पात्रको बनावे, जिसकी चौड़ाई बारह अंगुल हो । उस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy