SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 240
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कुन्दकुन्द श्रावकाचार चतुर्युक्तचत्वारिंशत्रिशतदविंशती। पञ्चवत्रिंशवपि चत्वारिंशच्चतुयुतः ॥६४ षष्टिमद्वादशी षष्टीरशीतिश्च द्विसप्ततिः । षष्टिश्च चैत्रमासादो ध्रुवाङ्काः शतसंयुताः ॥६५ रविदक्षिणतः कृत्वा ज्ञेया छाया पदानि च । तथाब्दे सप्तसंयुक्तैर्भागं कृत्वा धृवाङ्कतः ॥६६ लब्धाङ्कन घटीसंख्यां विजानीयाद बुधः सदा । पूर्वाह्न गतकालस्य शेषस्थं त्वपराह्निके ॥६७ 'मित्रादाशी न विषम सये त्रम् छ ग त्रये (?) । भवत्यभ्यवहार्येषु विषाश्लेषो हि कहिचित् ॥६८ धामं स स्वहिता (?) सम्यगमीभिलक्षणैः स्फुटैः । प्रयुक्तमरिभिर्युष्टं विषं जानन्ति तद्यथा ॥६९ अविक्लेद्यं भवेदन्नं पच्यमानं विषान्वितम् । चिराच्च पच्यते सद्यः पक्वः पर्युषितोपमम् ॥७० स्तब्धं सूष्मविनिमुक्तं पिच्छिलं चन्द्रिकाञ्चितम् । वर्णगन्धरसान्यत्वदूषितं च प्रजायते ॥७१ गोल वृत्ताकार पात्रमें भीतर एक अंगुलमें दश चिह्न बनावे । इस प्रकार पूरे छह अंगुलमें साठ चिह्न बनावे। इस प्रकार यह घटिका यन्त्र बननेपर उसके नीचे तलभागके केन्द्र में सूईके दशवें भाग-प्रमाण छेद बनाकर उसे किसी अन्य जल-परिपूरित पात्रमें डाल देवे। उस घटिका यन्त्ररूप ताम्रपात्र में जितने चिह्नप्रमाण जल भरता जावे, उतने ही पल-प्रमाण काल जानना चाहिए। इस प्रकारसे पूरे छह अंगुल या साठ चिह्न प्रमाण जल भरनेपर एक घटीका प्रमाण होता है। __ चैत्र आदि मासोंमें सौसे संयुत चवालीस (१४४) सौ से संयुत तीस (१३०) सौसे संयुत तीसके आधे अर्थात् पन्द्रह (११५) सौसे संयुत बीस (१२०) सौसे संयुत पन्द्रह (११५) सौसे संयुत तोस (१३०) सोसे संयुत चवालीस (१४४) सोसे संयुत साठ (१६०) सौसे संयुत साठयुक्त बारह (१७२) सौसे संयुत साठ (१६०) सौसे संयुत अस्सी (१८०) सौसे संयुत बहत्तर (१७२) और सोसे संयत साठ (१६०) ये ध्र वाङ होते हैं। सर्यको अपने दक्षिण भागकी ओर करके छाया जाननी छायाको पैरोंसे नाप लेनेपर जो संख्या आवे वह संख्या वर्तमान संवत्सरकी संख्यामें सातयुक्त जोड़कर जो राशि होगी उस राशिमें उस मासके ध्र वासे भाग देनेपर जो लब्धाङ्क आवेगा, उतनी घटी-संख्या विद्वान् पुरुष जानें । यदि पूर्वाह्नमें छाया नापी गई है तो उतनी घटी-प्रमाण काल बीता है। एवं मध्याह्नोत्तर नापी गई छायाके लब्धाङ्क-प्रमाण कालको दिनशेषका प्रमाण जाने ॥६४-६७॥ मित्रके द्वारा खिलाया गया अन्न मूर्छा आदि तीन लक्षणोंसे (मूर्छा, वमन और विरेचनसे) प्रमाणित होनेपर वह अन्न विष-मिश्रित है, ऐसा जानना चाहिए। क्योंकि कभी-कभी भोज्य पदार्थों में विष-मिश्रणका प्रयोग होता है ॥६८|| खानेमें आनेवाली वस्तुओंमें कदाचित् किसीके द्वारा विषका मिश्रण भी हो सकता है ॥६८॥ शत्रुओंके द्वारा प्रयुक्त विषको बुद्धिमान् पुरुष इन आगे कहे जानेवाले लक्षणोंसे आत्महितार्थ स्पष्टरूपसे जानते हैं। वे लक्षण इस प्रकार हैं-६९॥ विषसे संयुक्त पकाया जानेवाला अन्न भलीभाँतिसे पकेगा नहीं, अथवा बहुत देरसे पकेगा। तथा पका हुआ अन्न शीघ्र ही वासे अन्नके समान हो जायगा ॥७०॥ स्थिर ऊष्मासे विमुक्त हो जायगा, कीचड़ जैसा दिखेगा. चन्द्रकी चन्द्रिकासे युक्त अर्थात् शीघ्र शीतल हो जायगा। तथा विष-मिश्रित अन्न स्वाभाविक वर्ण, गन्ध और इससे भिन्न अन्य प्रकारके रससे दूषित हो जाता है ।।७१।। विषयुक्त व्यञ्जन १. मूल श्लोकका अर्थ वैद्यक-सम्मत दिया गया है। मूल पाठ प्रयत्न करने पर भी शुद्ध नहीं किया जा सका। -सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy