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________________ कुन्दकुन्द श्रावकाचार नातिक्षारं न चात्यम्लं नात्युष्णं नातिशीतलम् । नातिशाकं नातिगोल्यं मुखरोचकमुच्चकैः ॥४३ सुस्वादु विगतास्वाद विकथापरिवजितम् । शास्त्रजितनिःशेषाहारत्यागमनोहरम् ॥४४ मक्षिकालतनिर्मुक्तं नात्याहारमनल्पकम् । प्रतिवस्तुप्रधानत्वं सङ्कल्पस्वादुसुन्दरम् ॥४५ विपन्नसृतपानीयमर्धभुक्ते महाभूतिः । भुञ्जीत वर्जयन्नन्ते छन्नाआँ (?) पुष्कलं जलम् ॥४६ सुस्निग्धं मधुरं पूर्वमश्नीयावन्वितै रसैः । कषायाम्लो च मध्ये च पर्यन्ते कटुतिक्तकम् ।।४७ नामिनं लवणं ग्राह्यं तन्नाद्याच्च पिपासितः । रसानपि न वैरस्यहेतून् संयोजयेन्मिथः ॥४८ त्यजेत् क्षीरप्रभूतान्नमन्नं दध्नाधिकं त्यजेत् । कदस्थिप्रमुखयुक्तमुच्छिष्टं वाऽखिलं त्यजेत् ॥४९ धेन्वा नवप्रसूताया दशाहान्तर्भवं पयः । आरण्यकाविकोष्टुश्च तथा चैकशफं त्यजेत् ॥५० निःस्वादमन्नं कटु वाऽहृद्यमाथश्रयो यदि । तत्स्वस्यान्यस्य वा कष्टं मृत्युः स्वस्यारुचौ पुनः ॥५१ भोजनानन्तरं सर्वरसलिप्तेन पाणिना । एकः प्रतिदिने पेयो जलस्य चुलुकोऽङ्गिना ॥५२ न पिबेत्पशुवत्सोऽयं पीतशेषं तु वर्जयेत् । यथानाञ्जलिना पेयं पयः पथ्यं मितं यतः ॥५३ करेण सलिलाइँण न गण्डौ नापरं करम् । न स्पृशेत् किश्चित्स्पृष्टव्ये........."जानुनिश्रिये ॥५४ गन्धको लेता हुआ और अपनो दृष्टिके दोषविकारको दूर करता हुआ अर्थात् भोज्य पदार्थोको आँखोंसे भली-भाँति देखता हुआ भोजन करे ॥४२॥ भोजन न अतिखारा हो, न अधिक खट्टा हो, न अति उष्ण हो और न अति शीतल हो, न अधिक शाक वाला हो, और न अति गुड़-शक्कर वाला हो। किन्तु अच्छी तरहसे मुखको रुचिकर हो, सुस्वादु हो, अस्वादु न हो, ऐसे भोजनको विकथाएँ न करते हुए खावे । वह भोजन शास्त्र-निषिद्ध, समस्त प्रकारके अभक्ष्य आहारसे रहित और मनको हरण करने वाला हो ॥४३-४४॥ भोजन मक्खियों और मकड़ी-जालादिसे विमुक्त हो, न बहुत अधिक हो और न बिलकुल कम हो, प्रत्येक भोज्य वस्तु श्रेष्ठ हो, मनमें संकल्पित स्वादसे सुन्दर हो ॥४५॥ पीनेका जल शुद्ध, वस्त्र-निःसृत ( गालित ) या प्रासुक हो, उसे आधे भोजन करनेपर अर्थात् मध्यमें पीवे। अधिक जल न पीवे। अन्तमें अधिक जल-पानका परिहार करते हुए भोजन करे ॥४६॥ भोजन करते हुए सबसे पहिले मिष्ट रसोंसे युक्त स्निग्ध मधुर पदार्थ खावे, मध्यमें कसैले और खट्टे पदार्थों को खावे और सबसे अन्तमें कटु और तिक्त रसवाले नमकीन-पापड़ आदिको खावे ॥४७।। अन्य वस्तुओंसे नहीं मिले हुए कोरे नमकको नहीं ग्रहण करना चाहिए। जब प्यास अधिक लगी हो, तब भोजन न करे (किन्तु पानी पीवे )। विरसताके कारणभूत विरोधी रसोंको भी परस्पर न मिलावे ॥४८॥ दूधकी अधिकतावाले अन्नका त्याग करे, दहीकी बहुलतावाले अन्नको भी छोड़े। कड़ी और खोटी गुठलीकी अधिकतावाले शाक-फलादिसे युक्त तथा उच्छिष्ट सभी प्रकारके आहारका परित्याग करे ।।४९।। नवप्रसूता गायका दूध दश दिन तक ग्रहण न करे। जंगली भेड़-बकरी, ऊंटनी और एक खुर-टाप वाले पशुओंके दूधका भी त्याग करे ॥५०॥ जो भोजन स्वाद-रहित हो, कटुक हो, हृदयको प्रिय न हो, अथवा जीव-जन्तुओंका आश्रयभूत हो, जो अपनेको या अन्य प्राणीको कष्ट या मृत्यु-कारक हो, उसे ग्रहण न करे। जो भोजन अपने लिए अरुचिकर हो, उसका भी परित्याग करे ॥५॥ भोजनके अनन्तर सभी रसोंसे लिप्त हाथसे एक चुल्लुभर जल मनुष्यको प्रतिदिन पीना चाहिए ॥५२॥ मनुष्य जलको पशुके समान न पीवे और पीनेसे शेष रहे जलका परित्याग करे। क्योंकि अंजलीके द्वारा पिया गया परिमित जल पथ्य है ॥५३।। जलसे गीले हाथके द्वारा न दोनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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