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________________ बावकाचार-संग्रह उपानसहितो व्यप्रचित्तश्च भूमिसंस्थितः । पर्यस्थो विदिग्याम्याननो नाद्यात्कदाचन ॥३३ आसनस्थोऽपदो नाबात् श्ववाण्डालनिरीक्षितः । पतितैश्च तथा स्फुटिते भाजने मलिने तथा ॥३४ अमेष्यसम्भवं नाधाद दृष्टो भ्रूणादिघातकैः । रजस्वलापरिप्लुष्टमघ्राताङ्गः श्वपक्षिभिः ॥३५ अज्ञातगममज्ञातं पुनरुष्णीकृतं सदा । युक्तं वचवचाशब्दैन द्याद्वक्त्रविकारकृत् ॥३६ आह्वानोत्पादितप्रीतिः कृतदेवाभिधास्मृतिः । समपृथ्व्यनत्युच्चेनिविष्ट विष्टरे स्थिरे ॥३७ मातृश्ववम्बिकामामिभार्याः पक्कमादरात् । शुचिभियुक्तिवद्भिश्च दत्तं चाद्याज्जनैः स्वकैः ॥३८ कुक्षम्भरिनं कोऽप्यत्र बह्वाधारः पुमांश्च यः । ततस्तत्कालमायातान् भोजयेद बान्धवादिकान् ॥३९ वत्वा वानं सुपात्राय स्मृत्वा च परमेष्ठिनम् । येऽश्नन्ति ते नरा धन्या किमन्यैश्च नराधमैः ।।४० ज्ञानयुक्तः क्रियाधारः सुपात्रमभिधीयते । बत्तं बहुफलं तत्र धेनुक्षेत्रनिदर्शनात् ॥४१ कृतमौनमचक्राङ्गं वहद्दक्षिणनासिकम् । प्रतिभक्षसमाघ्राणहतहरदोषविक्रियम् ॥४२ जूतोंको पहिने हुए, व्यग्रचित्त होकर भूमिमें बैठकर, पलंग-खाटपर बैठकर, दक्षिण दिशा और विदिशाओंकी ओर मुख करके भी कभी नहीं खावे ॥३३॥ गादी आदि आसनपर बैठकर, अयोग्य स्थानपर बैठकर, कुत्तों और चाण्डालोंके द्वारा देखे जाते हुए, तथा जाति और धर्मसे पतित पुरुषोंके साथ, फूटे और मैले भाजनमें भी रखे हुए भोजनको नहीं खावे ॥३४॥ अपवित्र वस्तु जनित भोजन महीं खावे। तथा भ्रूण आदिको हत्या करनेवालोंके द्वारा देखा गया, रजस्वलाके द्वारा बनाया गया, परोसा गया या छुआ भोजन भी नहीं खावे । श्वान (कुत्ता) और पक्षी आदिके द्वारा जिसका शरीर सूंघ लिया गया हो, उस पुरुषको भी तत्काल भोजन नहीं करना चाहिए। (किन्तु शुद्ध होनेके बाद ही खाना चाहिए) ॥३५।। अज्ञात स्थानसे आये हुए भोजनको, अज्ञात वस्तुको, तथा पुनः उष्ण किये गये भोजनको भी नहीं खावे । मुखसे वच-वच या चप-चप शब्द करते और मुखको विकृत करते हुए भी नहीं खाना चाहिए ॥३६।। भोजनक लिए बुलानेसे जिसके प्रीति उत्पन्न हुई है और जिसने अपने इष्टदेवके नामका स्मरण किया है, ऐसा गृहस्थ मनुष्य समान पृथ्वीपर रखे हुए न अति ऊँचे और न अति नीचे ऐसे स्थिर आसनपर बैठकर माता, सासु, अम्बिका, मामी और भार्या आदिके द्वारा पकाये गये तथा पवित्रतायुक्त और युक्तिवाले व्यक्तियोंके द्वारा आदरपूर्वक परोसे गये आहारको अपने आत्मीय जनोंके साथ भोजन करे ।।३७-३८॥ इस लोकमें कोई केवल अपनी कुक्षिको भरने वाला न हो। किन्तु जो पुरुष बहुत पुरुषोंके जीवनका आधार है, उसे चाहिए कि वह भोजनके समय आये हए व्यक्तियोंको और बन्धुबान्धव जनोंको भोजन करावे ॥३९॥ जो पुरुष सुपात्रके लिए दानको देकर और पंच परमेष्ठियोंका स्मरण करके भोजन करते हैं, वे पुरुष धन्य हैं, । अन्य पुरुष जो ऐसा नहीं करते हैं उन अधम मनुष्योंसे क्या लाभ है ॥४०॥ जो पुरुष ज्ञानसे युक्त है और क्रिया-चारित्रका आधार है वह सुपात्र कहा जाता है उसे दिया गया दान बहुत फलको फलता है, जिस प्रकारसे कि गायको खिलाया गया भोजन बहुत मिष्ट दुग्धको देता है, तथा उत्तम क्षेत्रमें बोया गया बीज भारी सुफलको देता है ।।४१।। जब नासिकाका दक्षिण स्वर प्रवाहमान हो, तब मौन-पूर्वक अंगको सीधा करके प्रत्येक भक्ष्य वस्तुको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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